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यशोधरचरितयशोधरचरित हिंसा का दोष और अहिंसा का प्रभाव दिखाने के लिए बहुत लोकप्रिय रहा है। इस काव्य में चार सर्ग हैं-प्रथम सर्ग में ६२ पद्य, द्वितीय में ७५, तृतीय में ८३ और चतुर्थ में ७४ पद्य हैं।इसकी कथा वस्तु सोमदेव के यशस्तिलकचम्पू में वर्णित कथा के अनुसार ही है, जो निम्न प्रकार है
भरतक्षेत्र के अवन्ति जनपद की राजधानी उज्जयिनी के राजा यशबन्धु और उनकी रानी चन्द्रमती के यशोधर नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था ।एक बार अपने सिर पर श्वेत केश को देखकर राजा यशबन्धु को वैराग्य हो गया, उन्होंने अपने पुत्र यशोधर को राज्य सौंप कर दीक्षा धारण कर ली। यशोधर का राज्याभिषेक के साथ ही अमृतमती के साथ विवाह भी खूब धूमधाम से सम्पन्न हुआ।
रानी अमृतमती अष्टभंग नामक कुबड़े महावत की संगीत-ध्वनि से आकृष्ट होकर उस पर रीझ जाती है और यशोधर को कपट प्रेम प्रदर्शित करते हुए गुप्त रूप से उस कुबड़े महावत के साथ विलास करने लगती है।राजा यशोधर रानी के इस कपट व्यवहार को जानकर अत्यधिक खेदखिन्न रहने लगता है ।राजमाता के द्वारा उदासीनता का कारण पूछने पर वह अनिष्ट स्वप्न दर्शन बताकर अपने पुत्र यशोमति को राज्य देकर सन्यास लेने की इच्छा व्यक्त करता है।
राजमाता यशोधर को अनिष्ट की शान्ति के लिये चण्डमारीदेवी के मंदिर में पशुबलि चढ़ाने का उपाय बताती है ।पशुहिंसा के लिये किसी भी तरह यशोधर के तैयार न होने पर वह उससे आटे का मुर्गा बनाकर उसकी बलि चढ़ाने को कहती है |राजमाता की बात को रखने के लिये यशोधर आटे के मुर्गे की बलि चढ़ाने को सहमत हो जाता है।अमृतमती एक ओर तो यशोधर से कपट प्रेम दिखाते हुए उसे सन्यास लेने से रोकती है,दूसरी ओर आटे का मुर्गा बनाते समय उसमें विष मिला देती है, प्रसाद के रूप में जिसे खाकर यशोधर और उसकी मां चन्द्रमती दोनों की मृत्यु हो जाती है।
आटे के मुर्गे की बलि चढ़ाने के कारण मृत्यु के बाद दोनों मां बेटे छ: जन्मों तक पशु योनि में भटकते रहे।प्रथम जन्म में यशोधर मोर हुआ, उसकी मां चन्द्रमती कुत्ता हुई, दूसरे जन्म में यशोधर हिरण हुआ, मां सर्प, तीसरे जन्म में वे दोनों क्षिप्रा नदी में जलजन्तु हुए, चतुर्थ जन्म में दोनों बकरा बकरी हुए, पंचम जन्म में यशोधर बकरा और मां भैंसा हुई. छठे जन्म में यशोधर मुर्गा और चन्द्रमती मुर्गी बनी।
.. मुर्गा, मुर्गी के जन्म में आचार्य सुदत्त का उपदेश सुनकर उन्हें अपने पूर्व जन्म का स्मरण हुआ और अपने किये पर पश्चाताप भी |अतः अगले जन्म में वे राजा यशोमति के यहां उनकी रानी कुसुमावलि के गर्भ से युगल भाई बहिन के रूप में उत्पन्न हुए,उनके नाम थे अभयरूचि और अभयमती। एक बार राजा यशोमति के साथ दोनों भाई बहिन आचार्य सुदत्त के दर्शन के लिये गये, वहां आचार्य सुदत्त से अपने पूर्वभवों का वृत्तान्त जानकर दोनों भाई बहिनों को वैराग्य उत्पन्न हो गया और उन्होंने तत्काल दीक्षा ग्रहण कर ली।एक बार आचार्य से आज्ञा प्राप्त कर दोनों साधु साध्वी भिक्षाटन के लिये नगर में पहुंचे, तभी
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