Book Title: Pramana Nirnay
Author(s): Vadirajsuri, Surajmukhi Jain
Publisher: Anekant Gyanmandir Shodh Sansthan

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Page 80
________________ नाऽप्यन्वयादिभेदेन संति प्रमाणानीष्टसाधनादित्यस्यागमकत्वप्रसंगात्। नसावन्वयी व्यतिरेकी वा साधोदाहरणादेरभावादत एव नान्वयव्यतिरेक्यपि। न चासावगमक एवेष्टसाधनस्य प्रभाणसद्भावाविनाभावितया निर्णयात्। प्रमाणनिरपेक्षे हि तत्साधने भवत्यतिप्रसंगः स्वाभिमतस्य तत्वोपप्लवसंविदद्वैतादेरिव तद्विपर्ययस्यापि तथा तत्प्रसंगात्। 81 || अन्वयादि भेद (अन्वय, व्यतिरेक तथा अन्वय व्यतिरेकी आदि) भेद से भी लिंग तीन प्रकार का नहीं है- “संति प्रमाणानीष्ठसाधनात्" यहां "इष्टसाधनात्" हेतु के अगमकत्व का प्रसंग होने से।इष्टसाधनात् हेतु न अन्वयी है न व्यतिरेकी, साधर्म्य वैधर्म्य उदाहरण का अभाव होने से।साधर्म्य वैधर्म्य उदाहरण का अभाव होने से ही यह अन्वय व्यतिरेकी भी नहीं है।यह हेतु अगमक भी नहीं है, इष्टसाधन का प्रमाण के साथ अविनाभाव रूप से निर्णय होने से प्रमाण के बिना ही इष्ट साधन होने पर अतिप्रसंग हो जायगा। तत्वोपप्लवसंविदद्वैतादि के समान उसके विपरीत तत्वसदभाव पुरूषद्वैतादि के यहां भी उसी प्रकार का प्रसंग होने से। 181 ।। नापि संयोग्यादिभेदेन चातुर्विध्यं, तस्य' कृत्तिकोदयस्य शकटोदयादावलिंगत्वापत्तेः। नहि तत्र तस्य संयोगो धूमस्येवाग्नौ ।नाप्यऽसौ तस्य समवायी गोरिव विषाणादिः।न च तेन सहैकार्थसमवायी रूपादिनेव रसादिः। न च तद्विरोधी तद्विधिलिंगत्वात् |तन्न लिंगे त्रैविध्यादिनियमकल्पनमुपपन्नम्। 'अतन्नियतस्यापि साध्याविनाभावनियमविषयस्यानेकस्याभावात् ।।82|| ___ संयोग, समवाय एकार्थसमवाय और विरोधी के भेद से लिंग चार प्रकार का भी नहीं है, कृतिकोदय को शकटोदयादि में अलिंगत्व का प्रसंग होने से शकटोदय आदि में कृतिकोदय का अग्नि में धुएं के समान संयोग नहीं है, गाय के विषाणादि के समान समवाय संबंध भी नहीं है, रूपादि के साथ रसादि के समान एकार्थसमवाय संबंध भी नहीं है, वह विरोधी भी नहीं है उसको (प्रमाण को) सिद्ध करने में लिंग होने से।अतः हेतु में त्रैविध्य पांचरूप्य, चातुर्विध्य आदि नियम की कल्पना ठीक नहीं है, त्रैविध्यादि के न होने पर भी साध्य के साथ अविनाभाव रूपी नियम का अभाव होने से। 182।। संक्षेपेण तु तद्भिद्यमानं द्विधा भवति, विधिसाधनं प्रतिषेधसाधनं चेति विधिसाधनमपि द्वेधा, धर्मिणस्तद्विशेषस्य चेति धर्मिणो यथा, संति बहिर्थाः साधनदूषणप्रयोगादिति। कथं पुनरतो भावधर्मिणो बहिरर्थस्य साधनं? कथं च 'तत्वसद्भावपुरुषद्वैतादेः। ' संयोगिसमवायिएकार्थसमवायितद्विरोधि भेदेन । 'लिंगस्य। * कृत्तिकोदयः । न विद्यते वैविध्यादि नियतं यत्र। 'साधनं। 'परः प्राह। जैन आह। 57

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