Book Title: Pramana Nirnay
Author(s): Vadirajsuri, Surajmukhi Jain
Publisher: Anekant Gyanmandir Shodh Sansthan

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Page 107
________________ इनसे विपरीत साध्याभास है । साध्याभास प्रत्यक्षादि प्रमाणों से विरुद्ध के भेद से अनेक प्रकार का है । प्रत्यक्ष विरुद्ध जैसे पदार्थ प्रतिक्षण नष्ट होने वाले हैं, ऐसा कहना। क्योंकि प्रत्यक्ष से कथंचित् अक्षणिक की भी प्रतिपत्ति होती है।लोक में रूढ़ होने से वह प्रतीति मिथ्या ही है, यह कहना ठीक नहीं है, अन्यथा प्रतिपत्ति को अनिश्चयात्मक होने से, विचारपूर्वक उसके निश्चयात्मकता का धर्मविपरीत साधन के उदाहरण का निरूपण करते समय विरोध किया जाने से ।।115 || तत्सद्भावस्यावस्थापनात् । । 116 ।। अनुमान विरुद्ध - न संति बहिरर्थाः यह कथन अनुमान विरुद्ध हैं, क्योंकि साधन दूषण प्रयोग आदि से बहिरर्थ के सद्भाव की स्थापना की गयी है ।।116 || आगमविरुद्धं यथा-नास्ति सर्वज्ञ इति मीमांसकस्य । तत्र “हिरण्यगर्भ प्रकृत्य सर्वज्ञ" इत्यादौ तत्सद्भावस्य श्रवणात् । न तस्य तत्सद्भावावेदने तात्पर्यमर्थवादत्वेन' हिरण्यगर्भस्य सर्वज्ञतया स्तुतिविधावेव तद्भावात् । अन्यथाऽऽदिमदर्थत्वेन' तस्यानित्यत्वापत्तेरिति चेत्, कथं तत्रासता तेन स्तुतिः ? अध्यारोपितेन तेनेति चेत् न, आरोपणस्य मिथ्याज्ञानत्वेन वेदादसंभवादन्यथाविधिपरोऽपि तस्मिन् अनाश्वासापत्तेः । ततस्तदावेदन एव तात्पर्यं तस्य । नचानित्यत्वे तस्य दोषो नित्यत्व एव तस्य वक्ष्यमाणत्वात् । । 117 ।। • आगम विरुद्ध-"नास्ति सर्वज्ञः " मीमांसक का यह कथन है । "हिरण्यगर्भ प्रकृत्य सर्वज्ञ" इत्यादि में सर्वज्ञ के सदभाव को ही सुना जाने से उसके सद्भाव को सिद्ध करने का कोई तात्पर्य नहीं है, गुणानुवाद के रूप में हिरण्यगर्भ की सर्वज्ञ के रूप में स्तुति करने से ही सर्वज्ञ का सदभाव होने से । अन्यथा आदिमान का अर्थ सर्वज्ञ होने के कारण उसको अनित्यत्व की आपत्ति होने से । उस असत् के द्वारा सर्वज्ञ (हिरण्यगर्भ) की स्तुति कैसे की गयी?" अध्यारोपित के द्वारा" यह कहना भी ठीक नहीं है। आरोप को मिथ्याज्ञान होने के कारण वेद से असंभव होने से संभव होने पर भी उसमें अविश्वास की आपत्ति आने से | अतः सर्वज्ञ का सद्भाव सिद्ध करना ही उसका तात्पर्य है । सर्वज्ञ के अभाव के अनित्यत्व में कोई आपत्ति नहीं है, नित्य में दोष आगे कहा जाने से ।।117 ।। स्ववचनविरुद्धं यथा-न वाचो वस्तुविषया इत्यय ं वस्तुविषयत्वस्य प्रतिज्ञानस्य' विरोधात् अवस्तुविषयत्वे चानर्थकवचनतया निग्रहस्थानत्वापत्तेः ।118 ।। अनुमानविरुद्धं यथा- न संति बहिरर्था इति साधनदूषणप्रयोगादिना 1 गुणवादत्वेन, “विरुद्धे गुणवादः स्यादनुवादावधारित" इति वचनात् । स्तुतिरूपत्वेन । कर्मस्तुतिः, यजेत इत्यज्ञातज्ञापनरूपेऽज्ञातज्ञापको विधिरिति वचनात् । आदिमान् सर्वज्ञाद्यर्थो यस्य स तथा । 5. कल्पितेन । आरोपणसंभवप्रकारेण । कारणात् । " वचनस्येति शेषः । 2 3 4 5 84

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