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नाप्यन्यथोपपत्तिः ज्ञानादेः प्रत्येकं तन्मार्गत्वाभावात्। तथाहि-न ज्ञानदेवापवर्गः प्रत्युत्पन्नतत्वज्ञानस्याप्य'नपवृक्तस्यावस्थितेरन्यथोपदेष्टुरभावेनापव - र्गार्थिनां तत्वज्ञानस्याभावप्रसंगात् ।।134 ।।
मोक्षमार्ग की अन्यथा उपपत्तित्व भी नहीं है-ज्ञानादि को पृथक् पृथक् मोक्षमार्गत्व नहीं होने से।तथाहि-ज्ञानमात्र से मोक्ष नहीं होता, तत्त्वज्ञानी के भी अमुक्त होने से अन्यथा उपदेष्टा का अभाव होने से मोक्षार्थियों को तत्वज्ञान के अभाव का प्रसंग होने से।।134 ।।
नापि दर्शनादेवायमभिरुचिरूपात् तद्विषयापरिज्ञाने तस्यैवासंभवात् ।नापि ततस्तत्परिज्ञानसहायादनुष्ठानकल्पनावैफल्योपनिपातात् ।।135।।
केवल श्रद्धान रूपी दर्शन से भी मोक्ष नहीं होता |मोक्ष के विषय का ज्ञान नहीं होने से श्रद्धान के ही असंभव होने से श्रद्धान और ज्ञान दोनों से भी मोक्ष नहीं होता, अनुष्ठान (चारित्र) की कल्पना के विफल होने का प्रसंग होने से।।135 ।।
नाऽपि अनुष्ठानमात्रात्, तद्विषयवेदनाऽऽदरयोरभावे तस्यैवाभावात् ।ततो युक्तं त्रैरूप्यमेव तन्मार्गस्य ||136 ||
___ केवल अनुष्ठान (कियामात्र) से भी मोक्ष नहीं होता, विषय का ज्ञान और श्रद्धान के अभाव में किया के ही नहीं होने से।अतः मोक्ष का मार्ग त्रैरूप्य ही है।।136 ||
कथं पुनर्बधेन तस्याविरोधे तत्परिक्षयरूपस्तस्मादपवर्ग इति चेत् न, साक्षादविरोधेऽपि तन्निदानविरोधितयाऽपि ततस्तदुत्पत्तेः ।तथा हि-यद्यन्निदान - विरोधि ततस्तत्परिक्षयः, यथा व्याधिनिदानवातादि विरोधिनो भैषज्यात् व्याधेः, बंधनिदानविरोधी चोक्तो मार्ग इति। बंधस्य च निदानं रागादिरास्त्रवस्तद्विरोधित्वं च मार्गस्य, तस्य भेषजस्येवातिशयतारतम्ये रागादेर्वातादेरिवापकर्षतारतम्यस्य प्रतिपत्तेः ।।137||
बंध से मार्ग का विरोध नहीं होने पर भी अपवर्ग को बंध का क्षयरूप क्यों कहा है?यह कहना ठीक नहीं है।साक्षात् विरोध नहीं होने पर भी उसके कारण का विरोधी होने से भी उक्तमार्ग से बंध का क्षय होने से।कहा भी है-जो जिसके कारण का विरोधी है, उससे उसका क्षय होता है, जैसे कि रोग के कारण वातादि के विरोधी औषधि से व्याधि का क्षय होता है।बंध के कारण का विरोधी उक्त मार्ग है।बंध का कारण रागादि का आस्रव है, उक्त मार्ग उसका विरोधी है।जैसे औषधि के सेवन से वातादि का अपकर्षतारतम्य देखा जाता है, उसी प्रकार उक्त मार्ग के अतिशय तारतम्य से रागादि का अपकर्ष तारतम्य देखा जाता है। 1137 ।।
'अमुक्तस्य। ' आदिशब्दने श्लेष्मपित्तयोर्ग्रहणं ।
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