Book Title: Pramana Nirnay
Author(s): Vadirajsuri, Surajmukhi Jain
Publisher: Anekant Gyanmandir Shodh Sansthan

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Page 125
________________ 'पदादि रूपमेव प्रवचनं पदादेश्च स्फोटात्मनो निःकलस्य' नित्यत्वेनाऽपौरुषेयत्वात् कथं तदात्मनः प्रवचनस्य पुरुषगुणवशात्प्रामाण्यमिति चेत् न, वर्णक्रमस्यैव पदादित्वात्तदपि तदन्यस्य तस्याप्रतिपत्तेः । वर्णानामितरेतरकालपरिहारावस्थायिनां कथमेकत्र वस्तुप्रतिपत्तावुपयोग इति चेत् । इतरेतरदेशपरिहारावस्थायिनां कारणानामप्येकत्र कार्ये कथं तेषां यथास्वदेशं भावादिति चेत् न, वर्णानामपि यथा स्वकालं विद्यमानत्वस्याविशेषात् ।अवश्यं चैवमभ्युपगंतव्यमन्यथा ताल्वादिपरिस्पं दस्यापरापरसमयभाविनः एकत्र पदादिस्फोटाभिव्यक्तावप्यनुपयोगित्वेनानर्थकत्वप्रसक्तेः । 1147 ।। प्रवचन पद वाक्यादि रूप होते हैं और पदादि स्फोटात्मक और निरंश होते हैं, उनके नित्य और अपौरूषेय होने से कैसे उस पदादिरूप प्रवचन को पुरूष के गुण के कारण प्रमाणता है?यह कहना भी उचित नहीं है, वर्ण कम को ही पदादिपना होने से उसको प्रमाणता भी है, उससे भिन्न अन्य के प्रामाण्य की प्रतिपत्ति नहीं होने से। वर्गों के दूसरे-दूसरे काल में न रहने पर वस्तु की प्रतिपत्ति में उनका उपयोग कैसे है?यदि यह कहते हो तो फिर दूसरे दूसरे देश में न रहनेवाले कारणों का भी कार्य में कैसे उपयोग हो सकता है?उनके यथा स्वदेश में होने से कार्य में उनका उपयोग हो जाता है, यदि यह कहते हो तो फिर वर्गों को भी यथा स्वकाल में विद्यमान | से उनका भी प्रतिपत्ति में उपयोग हो जायगा, दोनों में समानता होने से यह अवश्य मानना चाहिये, अन्यथा तालु आदि के व्यापार को भी भिन्न भिन्न समय में होने पर एक स्थान पर पदादि स्फोट की अभिव्यक्ति में अनुपयोगी होने से उनके अनर्थक होने का प्रसंग होने से।।147 ।। कथं स्फोटादर्थप्रतिपत्तिः? स्वाधीनाभिव्यक्तिकादनभिव्यक्तिकाद्वा ततोऽर्थप्रतिपत्तौ सर्वदा सर्वस्यापि ततस्तदापत्तेः ।ततो वर्णकमनिवेशरूपमेव पदादिकं तस्य च पौरुषेयत्वादुपपन्नं पुरुषगुणायत्तं तत्र प्रामाण्यं ।।148।। स्फोट से अर्थ की प्रतिपत्ति कैसे होती है?स्वाधीन अभिव्यक्ति करने वाले या अभिव्यक्ति न करनेवाले स्फोट से अर्थ की प्रतिपत्ति होने पर सदा सबको ही स्फोट से अर्थ की प्रतिपत्ति का प्रसंग आयेगा। अतः वर्णकम की रचना रूप ही पदादि हैं और उसके पौरूषेय होने के कारण पुरूष के गुणों के कारण आगम की प्रमाणता सिद्ध होती है।।148।। 1 भाद्र आह। 2 आदिशब्देन वाक्यस्य ग्रहणं। 3 निरशंस्य। * व्यापारस्येति। रचना। 102

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