Book Title: Pramana Nirnay
Author(s): Vadirajsuri, Surajmukhi Jain
Publisher: Anekant Gyanmandir Shodh Sansthan

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Page 130
________________ वह प्रवचन अपने विषय अनेकान्तादि में उसके विरूद्ध धर्म के साथ रहता हुआ सप्तभंगी के द्वारा प्रवृत्त होता है।वे सात भंग इस प्रकार हैं-स्यादनेकात्मैव भाव: स्यादेकात्मैव, स्यादुभयात्मैव, स्यादवक्तव्य एव, स्यादनेकात्मावक्तव्य एव, स्यादेकात्मावक्तव्यएव, स्यादुभयात्मावक्तव्य एव ।।153 || अनेकात्मतत्प्रत्यनीकयोर्द्वित्वात्तदाश्रयावुभावेव भंगावुपपन्नौ कथममी सप्त भंगा इति चेत् न, प्रतिपित्सातावत्त्वेन तदुपपत्तेः। तथाहि-अनेकात्मनस्तत्प्रत्यनीकस्य च प्रत्येकमुभयोः क्रमेण युगपच्च प्रतिपित्सायां प्राथमिकाश्चत्वारो भंगाः, प्रथमभंगत्रयस्य क्रमेणावक्तव्यत्वेन सह बुभुत्सायामपरे त्रयो भंगा इति ।एवं परिणामादावपि सप्रत्यनीके भंगसप्तकमुन्नेतव्यम् ।।154 ।। अनेकान्त और उसके विपरीत एकान्त दो के होने से उनके आश्रय से दो ही भंग सिद्ध होते हैं ये सात भंग क्यों कहे?यह कहना समीचीन नहीं है, जानने की इच्छा के कारण उसकी उत्पत्ति होने से अनेकान्तात्मा और एकान्तात्मा के अलग-अलग कम से और युगपत् जानने की इच्छा से प्राथमिक चार भंग, प्रथम तीन भंग का कम से अवक्तव्य के साथ जानने की इच्छा से बाद के तीन भंग इस प्रकार ।इसी प्रकार परिणाम आदि में भी विपरीत के साथ सात भंग बना लेने चाहिये ||154|| न चैवं भंगांतरस्य परिकल्पनं भवति प्रथमादेर्द्वितीयादिना योगे तृतीयाद्यंतर्भावस्य बहुलं पुनरुक्तस्य' चोपनिपातात्। तन्न युक्तमिदं“सप्तभंगीप्रसादेन शतभंग्यपि जायते।" इति प्रकृतधर्मविधिप्रतिषेधाभ्यामेव तदनुत्पत्तेर्जीवादिपदार्थगततदपरानेकधर्मविधिव्यवच्छेदबलालंबेन तदवकल्पनायामत्यल्पमिदं शतभंगीत्यादि, ततः सहस्रभंग्यादेरपि संभवात्। एवकारोऽत्र सर्वत्रायोगव्यवच्छेदाय सर्वमनेकात्मैव नान्यथेति, एवमन्यत्रापि ।।155|| __इस प्रकार सात के अतिरिक्त अन्य भंग की कल्पना भी नहीं होती, प्रथमादि को द्वितीयादि के साथ मिलने पर तृतीयादि भंग बनता है, फिर तृतीय भंग के साथ प्रथमादि भंग का योग करने पर पुनरूक्त का प्रसंग होने से ।अतः यह कहना ठीक नहीं है कि सात भंग के प्रसाद से सौ भंग भी हो जाते हैं, प्रकृत धर्म के विधि और प्रतिषेध के द्वारा ही उनकी उपपत्ति नहीं होने से जीवादि पदार्थ गत अनेक धर्मों के विधि और प्रतिषेध के कारण सौ भंगों की कल्पना करने पर तो सौ भंग भी बहुत कम हो जायगे, उससे हजार भंग की भी संभावना होने से सभी भंगों में एवकार का प्रयोग अनुचित मेल का निराकरण करने के लिए है।जैसे सभी अनेकान्तात्मा ही हैं, अन्यथा नहीं, इसी प्रकार द्वितीयादि भंगों में भी |जैसे सभी एकान्तात्मा ही हैं, अन्यथा नहीं आदि ।।155 ।। तस्याप्यनेकात्मादिपदादेव प्रतिपत्तुमसामर्थ्य भवत्वयं कस्य चित्सामर्थ्य तु किमनेनेति चेत् न, तदाप्यप्रयोग एवेति नियमाभावात् ।कथं तदभावः प्रतीतार्थप्रयोगस्य दोषत्वादिति चेत्, कथमिदानीं द्वावपूपौ त्वं पचसीत्यत्र 'प्रथमभगस्य तृतीयभंगेन सह योगेन पुनरुक्तत्वमस्तित्वद्वयात् । 2 भंगेषु। 3 द्वितीयादिभंगेष्वपि। पुंस इति शेषः। 107

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