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कीटकादिध्वानस्याप्रतिपत्तेः । साधनव्यावृत्तिश्च नयनात्ततोऽजनादेस्तदगतस्याप्रतिवेदनात्तदप्राप्यकारित्वस्य च प्रत्यक्षनिर्णये निरूपितत्वात्।।151 ।
___ शंकाकार कहते हैं-शब्द के पौद्गलिक होने पर घटादि के समान अव्यापक होने से नाना देशों में रहने वाले व्यक्तियों के द्वारा एक साथ कैसे सुना जाता है? श्रोत्र के अप्राप्यकारी होने से यह नहीं कह सकते।श्रोत्र प्राप्यकारी है निकटवर्ती शब्द को ही ग्रहण करने से जो निकटवर्ती को ग्रहण नहीं करता, वह प्राप्यकारी नहीं है जैसे नेत्र, श्रोत्र प्रत्यासन्नग्राही है इस प्रकार उसको प्राप्यकारी सिद्ध किया जाने से श्रोत्र को प्रत्यासन्न ग्राहित्व है, प्रत्यासन्न ग्राही होने से ही उसके विवर में रहने वाले कीड़े आदि के शब्द को नहीं सुने जाने से।साधन व्यावृत्ति भी है, आंख के द्वारा आंख में लगे हुए अंजन आदि को न जानने से, उसके अप्राप्यकारित्व को प्रत्यक्षनिर्णय के समय निरूपित किया जा चुका है।।151||
कथमेवमेकश्रोत्रप्रविष्टस्य वर्णस्य तदेवा'न्यैः श्रवणमिति?न, वर्णस्य नानादिगभिमुखप्रवृत्तिकसदृशानेकस्वरूपतयैव स्वहेतुबलतो गंधवदेव प्रादुर्भावात्। न हि गंधस्यापि युगपन्नानादेशस्थघ्राणेंद्रियप्राप्तिरेकस्यैवाव्यापिनो लोष्ठवदेव तदनुपपत्तेः |तन्नैवं प्रवचनस्यापौद्गलिकत्वपरिकल्पनमुपपन्नम् ।ततः स्थितं सकल भावाधिष्ठानयोरनेकांतपरिणामयोर्मार्गतद्विषययोश्च प्रतिपादकं प्रवचनमविसंवादभावात्तद्भावस्य च निरूपितत्वात्प्रमाणमिति||152 ||
इस प्रकार एक श्रोत्र में प्रविष्ट वर्ण को दूसरे लोग कैसे सुन लेते हैं?यह कहना ठीक नहीं है।वर्ण को नाना दिशाओं में अभिमुख होने की प्रवृत्तिवाले सदृश अनेक स्वरूप से ही अपने कारण से गंध के समान उत्पन्न होने से।अन्यथा गंध भी एक साथ नाना देशों में रहने वालों के घाणेन्द्रिय को नहीं प्राप्त हो सकता, अव्यापी एक के ही लोष्ठ के समान नाना देशस्थ पुरूषों के घ्राणेन्द्रिय की प्राप्ति नहीं होने से।अतः प्रवचन को अपौद्गलिकत्व सिद्ध नहीं होता ।अतः संपूर्ण भावों के अधिष्ठान अनेकान्त, परिणाम, मार्ग तथा उसके विषय का प्रतिपादक प्रवचन अविसंवादी है और जो अविसंवादी है, उसको प्रमाण कहा गया है।।152||
तच्च स्वविषयेऽनेकांतादौ तत्प्रत्यनीकधर्मसद्वितीये वर्तमानं सप्तभंग्या प्रवर्त्तते ।तद्यथा-स्यादनेकात्मैव भावः, स्यादेकात्मैव, स्यादुभयात्मैव, स्यादवक्तव्य एव, स्यादनेकावक्तव्य एव, स्यादेकात्मावक्तव्य एव, स्यादुभयात्मावक्तव्य एवेति||153 ।।
नृभिः। ' अन्यथा नानादिगभिमुखवृत्तिकसदृशानेस्विरूपत्वाभावे ।
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