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द्वौपदत्वंप' दयोः प्रयोगो विना ताभ्यां तदर्थप्रतिपत्तेः । लोके गुरुलाघवं प्रत्यनादरादिति चेत्, सिद्धमेवकारप्रयोगस्यापि निर्दोषत्वं । तच्चानेकात्मत्वं भावस्य स्यात्कथंचिद्धर्मरूपेणैव न धर्मिरूपेण तस्यैकस्यैव शब्दादिरूपस्य प्रतीतेरे- ' कात्मत्वमपि धर्मिरूपेणैव, न धर्मरूपेण, तस्यापि तत्रानित्यत्वकृतकप्रयत्नानंतरीय त्वादिरूपस्यानेकस्यैव प्रतिपत्तेः । कल्पनैव सा नवस्तुतत्त्वावगाहिनी बुद्धिरिति चेत् न, कल्पनाया एवाभिलाप्यानभिलाप्यस्वभावायाः स्याद्वादविद्वेषे सत्यनुत्पत्तेः । कल्पनायां न तद्विद्वेष इति चेदन्यत्रापि न स्यादविशेषत् । एवमुभयात्मकत्वमपि स्वगताभ्यामेव धर्मधर्मिभ्यां क्रमबुभुत्साविषयाभ्यां न भावांतरगताभ्यामवक्तव्यत्वमपि ताभ्यां युगपदेव न कमेण' नापि पदांतरेण तेन युगपदपि शतृशानयोः सच्छव्देनेव वक्तव्यत्वसंभवात् । एवमुत्तरत्रापि स्यान्निपाताप्रसंगनिवृत्तिरवगंतव्या । भवतु नाम हेयोपादेयतत्वस्य' सोपायस्य प्रवचनेन प्रतिपादनं तत्परिज्ञानस्य निःश्रेयसनिबंधनत्वेन पुरुषार्थहेतुत्वादनेकांत परिणामयोः किमभिधानेनेति चेत् न, हेयादितत्वस्य तव्यापृत्वज्ञापनार्थत्वात् तस्य न ह्यनेकात्मपरिणामविकलं तत्संभवति वस्तुमात्रस्यापि तव्यातस्यैवोपपत्तेर्निरूपितत्वात् । चानेकांतन्यायविद्विषां
तदभावेन
तथा तदव्याप्तस्य
हेयादितत्वस्याप्यनुपपत्तेस्तत्प्रवचनानां तदभासत्वमभिहितं भवति । ततः स्थितं युक्तिशास्त्राविरोधेन सकलभावाधिकरणानेकांतपरिणामनिःश्रेयसमार्गतद्विषयलक्षणस्य सत्यचतुष्टयस्य यथावदभिधानादन्ययोगव्यवच्छेदेन भगवज्जिनशासनमेव प्रमाणमिति । ।156 ।।
शंकाकार कहते हैं- अनेकान्तात्मा आदि पद से ही जानने की समर्थता नहीं होने पर एवकार का प्रयोग कर लिया जाय किंतु किसी व्यक्ति की जानने की समर्थता होने पर एवकार के प्रयोग की क्या आवश्यकता है? यह कहना ठीक नहीं है । सामर्थ्य होने पर भी उसका प्रयोग नहीं ही हो, ऐसा कोई नियम नहीं होने से । नियम का अभाव क्यों है? प्रतीतार्थ के लिये प्रयोग का दोष होने से, यदि यह कहते हो तो फिर 'द्वावपूपौ त्वं पचसि' यहां द्वौ और त्वं इन दोनों पदों का प्रयोग क्यों किया गया है, इन दोनों पदों के बिना भी अर्थ की प्रतिपत्ति होने से । संसार में गुरू और लघु के प्रति अनादर होने से यदि यह कहते हो तो एवकार के प्रयोग को भी निर्दोषपना सिद्ध हो जाता है । पदार्थ का वह अनेकात्मत्व कथंचित धर्मरूप से ही है, धर्मी रूप से नहीं, धर्मी के शब्दादिरूप एक की ही प्रतीति होने से | एकात्मत्व भी धर्मी रूप से ही है, धर्मरूप से नहीं धर्मरूप के भी अनित्यत्व, कृतकत्व, प्रयत्नानंतरीयकत्व आदि रूप अनेक की ही प्रतिपत्ति होने से । अनेक और एकरूप विषयक वह कल्पना ही है, वस्तुतत्व को ग्रहण करनेवाली बुद्धि नहीं है, यह कहना भी उचित नहीं है, अभिलाप्य या अनभिलाप्य स्वभाववाली कल्पना का स्याद्वाद से विरोध होने पर नहीं होने
द्वाविति पदं च त्वमिति पदं च द्वौपदत्वं ।
2 अनेकैकत्वविषया ।
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३ “धीर्विकल्पाविकल्पात्मा बहिरतश्च किं पुनः । निश्चयात्मा स्वतः सिद्धयेत्परतोऽप्यनवस्थितिः ।”
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स्वरूपापापेक्षया ।
मार्गविषयभूतसप्ततत्वस्य ।
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