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प्रादेशिकस्यानित्यस्य चोपकल्पनमिति चेत्, पौदगलिक इति ब्रूमः ।तथा हि-पुद्गलविवर्त्तः शब्दः इंद्रियवेद्यत्वात् कलशादिसंस्थानवत्। तोयादि संस्थानेन व्यभिचारस्तस्य सत्यपि तद्वेद्यत्वे तद्विवर्त्तत्वाभावात्। सोऽपि तोयादौ स्पर्शादिस्वभावचतुष्टयस्याभावेन तल्लक्षणस्यपुदगलस्याभावादिति चेत् न, तत्राप्यनभिव्यक्तस्य गंधादेः स्पर्शवत्वादेव लिंगात्पृथिव्यामिव प्रतिपत्तेः, अनुद्भूतस्वभावत्वाच्च हेम्न्युष्णस्पर्शवदनुपलंभस्याप्यविरोधात्। पृथिव्यादिरूपतया चातुर्विध्यस्यापि धारण इवोष्णेरणरूपतया पुद्गलतत्वाविशेषेऽप्युपपत्तेः, तन्नायं नियमः, आपो रसरूपस्पर्शवत्यस्तेजोरूपस्पर्शवत् वायुः स्पर्शवानिति ।नापि सामान्यैः कर्मभिर्व्यभिचारस्तेषां तद्वतो भेदे तद्वेद्यत्वस्याप्रतिवेदनात्, अभेदे तु तद्वतः पुद्गलतया तद्विवर्त्तत्वेन तेषु सपक्षस्यैव भावात् ।मूर्त्तितदिंद्रयवेद्यत्वस्यैव पौद्गलिकत्वेन व्याप्तिन च शब्दस्य तदस्ति तदिद्रियस्यामूर्त्तत्वादिति चेत्, कथमेवमन्योऽपि हेतुर्दडादिनिबंधनस्यैव कृतकत्वस्यानित्यत्वेन व्याप्तिर्न च उताब्दस्य विद्यत इत्यपि वदतो निवारयितुमशक्यत्वात् कृतकत्वमात्रस्यैव तेन व्याप्तौ प्रकृतेनाप्यद्रियत्वमात्रस्यैव सा वक्तव्या। किं वा तदमूर्तिमतींद्रियम्? आकाशमिति चेत् न, तस्य व्यापित्वेनातिदूरस्यापि शब्दस्य सर्वस्यैकेंद्रियत्वेन सर्वविषयस्यैकेनैकविषयस्य सर्वेण श्रवणप्रसंगात् ।कर्णशष्कुलिविवरपरिच्छिन्नस्तस्य प्रदेश इति चेत् न, तस्य वास्तवत्वे कार्यत्वे च नभसः कलशादिवदनित्यत्वप्रसंगात्, काल्पनिकस्य च व्योमकुसुमादिवदिद्रियत्वानुपपत्तेः। अतः क्षयोपशमस्वभावशक्तिविशेषाध्यासितजीवप्रदेशाधिष्ठितस्य शरीरावयवस्यैव श्रोत्रत्वं, तत्संस्पर्शनेनैव शब्दस्य श्रवणमिति न तस्येंद्रियान्तरात्कश्चिद्विशेषः । 1150 ।।
शब्द के अनित्य होने पर वह ही यह अकार या उकार है, जो पहले सुना था, यह प्रत्यभिज्ञान कैसे हो सकता है, शब्द के नित्य होने पर ही इस प्रकार के प्रत्यभिज्ञान के होने से।यह कहना ठीक नहीं है किसी सामान्य विशेष से उसका ज्ञान होने से शंकाकार कहते हैं-शब्द के सदृश परिणाम रूप होने के कारण यह उसके समान है, इस प्रकार का शब्द से ज्ञान हो जाय, किंतु यह वही है, यह ज्ञान नहीं हो सकता, यह कहना ठीक नहीं है, अनित्य शब्द से भी कलम केशादि में उसकी उपलब्धि होने से।शंकाकार कहते हैं-कि शब्द के नष्ट हो जाने और पुनः उत्पन्न होने से भिन्न शब्द में वास्तविक एकत्व का अभाव होने से इस प्रकार का ज्ञान भ्रान्त ही है।आचार्य कहते हैं यह कहना भी ठीक नहीं है वर्णादि में भी यह बात सामान्य होने से, व्यय और उत्पाद का वहां भी प्रत्यक्ष से निश्चय होने से |अतः नित्यत्व के निराकरण के द्वारा शब्द में व्यापित्व के वर्णन का भी निराकरण हो गया, घटादि के अव्यापी होने पर वहां भी प्रत्यभिज्ञान होने से व्यापी सामान्य के होने से ही
' आदिशब्देन तेजोवायू गृहीतव्यौ। 2 पृथिव्यादे : पुद्गलत्वाविशेषत् भेदः कथमिति चेत्। 3 चलनात्मकैः। +कृतकत्वादिः। 5 श्रोत्रैकेंद्रियत्वेन।
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