Book Title: Pramana Nirnay
Author(s): Vadirajsuri, Surajmukhi Jain
Publisher: Anekant Gyanmandir Shodh Sansthan

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Page 124
________________ तस्मान्निर्मूलनिर्मुक्तकर्मबंधोऽतिनिर्मलः । 'व्यावृत्तानुगताकारोऽनंतमानंददग्बल 1/1// निःशेषद्रव्यपर्यायसाक्षात्करणभूषणः । जीवो मुक्तिपदं प्राप्तः प्रपत्तव्यो मनीषिभिः ।।2।। अतः मोक्ष होने पर जीव कर्मबन्ध से निर्मूल मुक्त होकर अत्यन्त निर्मल कर्मों से रहित ज्ञानादि गुणों से युक्त अनन्त आनन्द, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य वाला अखिल द्रव्य की अखिल पर्यायों को साक्षात् जानने वाला हो जाता है, ऐसा विद्वानों को जानना चाहिये। 11,2|| __भवतु नाम निश्चितलक्षणेन प्रत्यक्षादिनाऽसंवादात्तद्विषयेण प्रमाण्यमागमस्यात्यंतपरोक्षे तु जगत्संनिवेशविशेषादौ कथं निर्णेतव्यमतन्निर्णय तत्वज्ञानस्यापरिपूर्णतया निःश्रेयसनिबंधनत्वाभावप्रसंगादिति चेत् न, तद्विषयस्यापि प्रवचनस्य प्रत्यक्षादिसंवादबलादवधारितप्रमाण्यप्रवचनसमानकर्तृकतया तन्निर्णयात्। न च निःशेषनिधूतरागादिदोषस्य सर्ववेदिनः क्वचित्तथ्या मिथ्या चान्यत्र वचनप्रवृत्तिः संभवति, रागादिमत्यतत्वज्ञ एव तथा तत्प्रवृत्तेरुपलंभात् । समानकर्तृकत्वमपि तत्रभागस्य भागांतरेणं शास्त्रांतरवदविच्छिन्नादुपदेशपारंपर्यवगतेः ।।146 ।। शंकाकार कहते हैं-निश्चित लक्षण वाले जीवादि सात तत्वों को विषय करने वाले आगमांश को प्रत्यक्षादि प्रमाणों से अविसंवादी होने के कारण प्रमाणता मान ली जाय किन्त अत्यंत परोक्ष जगत की रचना विशेष आदि के विषय में उसकी प्रमाणता का निर्णय नहीं होने पर तत्वज्ञान की परिपूर्णता नहीं होने से मोक्ष के कारणत्व के अभाव का प्रसंग आयेगा, ऐसा कहना ठीक नहीं है |जगत की रचना आदि विषयक प्रवचन को भी प्रत्यक्षादि प्रमाणों के बल से अवधारित प्रमाणिक प्रवचन के समान होने के कारणप्रमाणता का निर्णय होने से संपूर्ण रागादि दोषों को नष्ट कर देने वाले सर्वज्ञ की कहीं सत्य और कहीं मिथ्या वचन प्रवृत्ति संभव नहीं है, रागादि वाले असर्वज्ञ में ही तथा वचन प्रवृत्ति देखी जाने से।अत्यंत परोक्षार्थ प्रतिपादक आगमांश की प्रत्यक्षादि प्रसिद्धार्थ प्रतिपादक आगमांश के साथ समानता भी है, एक शास्त्र से दूसरे शास्त्र की समानता के समान उपदेश परंपरा से ऐसा जाना जाने से। 1146 ।। 'कर्मभ्यः व्यावृत्तः, संविदादिनानुगतः । 2 अनंतसुखदर्शनवीर्यज्ञानबलः । ३ अत्यंतपरोक्षार्थप्रतिपादकस्यागमांशस्य प्रामाण्यानिर्णये। * अत्यंतपरोक्षार्थप्रतिपादकागमांशस्य। 5 प्रत्यक्षादिप्रसिद्धार्थप्रतिपादकागमांशेन सह। 101

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