Book Title: Pramana Nirnay
Author(s): Vadirajsuri, Surajmukhi Jain
Publisher: Anekant Gyanmandir Shodh Sansthan

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Page 121
________________ कथमेवं' "तपसा निर्जरा च" इति संवरनिर्जरयोस्तपो निमित्तत्वमभिहितं तपसः कायपरितापरूपस्यामार्गागत्वादिति चेत् न, तपःशब्देन तत्रापि तत्वज्ञान -परिपाकपरिकलितस्य बाह्येतरव्यापारोपरमलक्षणस्य चारित्रस्यैव प्रतिपादनादनशनादीनां तत्परिबृंहणपरतयैव तपस्त्वात् न मुख्यतः । यद्येवं चारित्रादेव तादृशादास्त्रवनिरोधे कथमभ्यधायि, “स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः” इति गुप्त्यादरेपि तन्निरोध इति चेत् न तस्यापकृष्टतद्विकल्परूपतया लेशतस्ततोऽपि तदुपपत्तेः । ।141 ।। सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप मोक्षमार्ग से ही कर्मो से मुक्ति होती है तो फिर "तपसा निर्जरा च" इस सूत्र के द्वारा संवर और निर्जरा का कारण तप को क्यों कहा गया है? तप को शरीर को कष्ट देनेवाले के रूप में होने से विपरीत मार्ग का अंग होने से यह कहना उचित नहीं है, वहां भी तप शब्द से तत्वज्ञान की परिपक्वता से युक्त बाह्य और आन्तरिक व्यापार के शांत होने रूप चारित्र का ही प्रतिपादन होने से, अनशनादि बाह्य और अभ्यंतर तपों को उस चारित्र की वृद्धि करनेवाला होने से ही तप कहा गया है, मुख्य रूप से नहीं । यदि इस प्रकार चारित्र से ही आस्रव का निरोध हो जाता है तो " गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षा परिषहजयचारित्रैः " सूत्र के द्वारा गुप्ति आदि से भी आस्रव का निरोध क्यों कहा गया है? यह कहना उचित नहीं है, उसके चारित्र के अपकृष्ट विकल्प के रूप में होने के कारण कुछ अंशों में उससे भी आस्रव निरोध होने से । । 141 ।। ★ कीदृशस्तर्हि मोक्षे जीवो नीरूप एव न भवत्येव केवलमित्यभ्युपगगमादिति चेत् न, ततः प्रागनुवृत्तिस्वभावतया प्रतिपन्नस्य तदापि पूर्ववत्तत्स्वभाव - परित्यागानुपपत्तेः । न प्रागपि तस्य वास्तवमनुवृत्तिमत्वमध्यारोपादेव तस्य भावादिति चेत् न, अध्यारोपस्याप्यपरापरक्षणेष्वेकत्वाध्यवसायस्य तत्प्रतिपत्ति विकलादयोगात् क्षणपर्यवसायिनश्च कुतश्चित्प्रत्यक्षादिवत्तत्प्रतिपत्तेरनुपपत्तेः, अपरापरसमयानुपातित्वस्य तत्र वास्तवत्वे वस्तुसत एव तद्रूपतया जीवस्य व्यवस्थितेः । काल्पनिकत्वे तत्कल्पनाकारिण्यप्येवं प्रसंगेनानवस्थोपनिपातात् । ततो वास्तवमेव तस्यानुवृत्तिमत्वं कल्पनया तदनुपपत्तेरिति मोक्षे नीरूपत्वमुपपन्नम् । । 142 ।। तटस्थ कहते हैं - तब मोक्ष में जीव कैसा रहता है? नीरूप रहता है । प्रतिपक्षी बौद्ध कहते हैं- केवलमेतिशान्तिम्" माना जाने से वह नीरूप नहीं रहता है, उनका यह कहना उचित नहीं है।मोक्ष से पहले अनुवृत्ति जीवत्व स्वभावता को प्राप्त जीव का मोक्ष होने पर भी 2 मोक्षमार्गादेव भवति चेदिति शंकाया । सूत्रे । 3 "भवहेतुप्रहाणाय बहिरभ्यंतरक्रियाविनिवृत्तेः परं सम्यक्चारि ? ज्ञानिनो मतम्" । 4 तटस्थो वक्ति, बौद्धः प्रत्यवतिष्ठते, निःस्वभावः सर्वशून्य" इत्यर्थः । 5 यथा निर्वृतिमभ्युपैति नैवावनिं गच्छति नांतरिक्षं । दिशं न कांचिद्विदिशं न कांचित्स्नेहक्षयात्केवलमेतिशांति । जीवस्तथा निर्वृतिमभ्युपैति नैवावनिं गच्छति नांतरिक्षं । दिशं न कांचिद्विदिशं न कांचिन्मोहक्षयातकेवलेमति शांति । |' 98 "

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