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नित्यत्व विषय को भी सान्वय दिनाश और निरन्वय विनाश के समान होने से ।कूटस्थ (सर्वथा नित्य) शब्द में निरन्वय विनाश के समान अर्थ किया की शक्ति नहीं होने से उससे व्याप्त किसी भी हेतु के असंभव होने से।फिर अविशिष्ट विषय में उसका विरुद्धत्व कैसे है यह कहना ठीक नहीं है। वहां कथंचित् विरोध के भी होने से, वह अव्यभिचारी अनैकान्तिक नहीं है, अपितु विरुद्धत्व ही है।उसको विरुद्धाव्यभिचारित्व कैसे है? उसके द्वारा शब्द अनित्य है अथवा उसके विरुद्ध हेतु के द्वारा नित्य है, यह संशय होने के कारण, यह कहना ठीक नहीं है, विपक्ष साधक रहित हेतु को भी यह संशय हो जायगा, उससे भी शब्द के नित्यत्व अनित्यत्व के संशय की संभावना होने से।कृतकत्व हेतु के निरन्वय विनाश के समान कूटस्थ नित्य में भी काल्पनिक के होने से, वास्तविक तो अनेकांत के विपरीत होने से दोनों ही जगह संभव नहीं होने से।अतः अनेकांत न्याय वेत्ताओं के यहां तो विरुद्धाव्यभिचारी भी विरूद्ध ही है, अन्य एकान्त वादियों के यहां तो विपक्ष साधक रहित होने पर भी कृतकत्व आदि हेतु संशय के ही कारण है, अनेकांत रूप प्रक्रिया से रहित उनके यहां साध्य के समान साध्य के विपक्ष में भी संभावना होने से कहा भी हैविरुद्धाव्यभिचारी कथंचित् विरुद्ध भी है, ऐसा विद्वानों का मत है, अनेकांत प्रक्रिया के बिना सभी अज्ञानता के हेतु हैं।इस प्रकार अन्य भी हेत्वाभास को जानना चाहिये। 113 ।।
किं पुनः साध्यं यदविनाभावो हेतुलक्षणमित्युच्यते। “साध्यं शक्य मभिप्रेतमप्रसिद्धमिति। न हि प्रसिद्धस्य साध्यत्वं पुनः पुनस्तत्प्रसंगेनानवस्थापत्तेः। नाप्यनभिप्रेतस्य साध्यं प्रत्यभिमुखचित्तस्येव लिंगतस्तत्प्रतिपत्तेः । नाप्यशक्यस्य तत्र हेतोरशक्तेः ।।114 ||
साध्य क्या है?जिसको अविनाभाव हेतु का लक्षण कहा है-साध्य शक्य (प्रत्यक्षादि प्रमाणों से अबाधित) इष्ट और अप्रसिद्ध होता है।प्रसिद्ध साध्य नहीं हो सकता, पुनः पुनः उसको सिद्ध करने के प्रसंग से अनवस्था दोष होने से।अनिष्ट भी साध्य नहीं हो सकता, साध्य के प्रति अभिमुख चित्तवाले के समान ही लिंग से साध्य की प्रतिपत्ति होने से अशक्य भी साध्य नहीं हो सकता, वहां हेतु के अशक्त होने से।।114।।
ततोऽपरं साध्याभासं तच्च प्रत्यक्षादिविरुद्धविकल्पनादनेकधा तत्र प्रत्यक्षविरुद्धं यथा-प्रतिक्षणविशरारवो भावा इति, प्रत्यक्षतस्तत्र कथंचिदविशरणस्यापि प्रतिपत्तेः ।लोकोपाध्यारूढत्वान्मिथ्यैव तत्प्रतिपत्तिरिति चेत् नान्यथाप्रतिपत्तेरनध्यवसायाद्विचारतस्तदध्यवसायस्य चान्यत्र विरोधात्।।115।।
अबाधितं। 2 इष्टं। ' प्रतिवाद्यपेक्षयाऽप्रसिद्ध। * पुंसः। 'धर्मविपरीतसाधनोदाहरणनिरूपणावसरे।
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