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प्रतिवेदन होने से।ज्ञान स्वभाव से विलक्षण आत्मा के विषय में प्रत्यक्ष विरूद्ध पक्ष होने से अनुमान की भी उपपत्ति नहीं हो सकती ।अतः परमवीतरागता के रूप में अव्यभिचारी हेतु से निर्धारित भगवान में दोष युक्त वचन नहीं हो सकता। 1127 11
कथमेवं' तादृशस्य वचनमपि स्वार्थाभावादिति चेत् न, परार्थतयैव तद्भावात्। तयापि तन्न परानुग्रहाभिसंधे स्तत्र तदभावात्, अपि तु सुकृतविशेषोपनिपातात्, स्वभावविशेषादेव, भानुमतोनलिनविकासवत्, उदन्वदंभोविवर्द्धनवच्च तुहिनद्युतेः ।।128 ।।
वीतरागी भगवान का अपना कोई स्वार्थ न होने के कारण निर्दोष वचन भी क्यों है?यह कहना ठीक नहीं है परार्थतया ही उनके वचन होने से परार्थतया भी उनके वचन नहीं हैं पर का अनुग्रह आदि मोह का भी उनमें अभाव हो जाने से।अपितु पुण्यविशेष से प्राप्त स्वभाव विशेष से ही उनके निर्दोष वचन होते हैं। सूर्य से कमल के विकास के समान तथा चन्द्रमा से समुद्र के जल के विवर्द्धन के समान । |128 ||
कथं तर्हि प्रत्यर्थनियतत्वं तद्वचनस्य सकलदर्शनोपजनिते तत्र सकलार्थताया एवोपपत्तेर्नियतविषयाभिसंधेश्च नयरूपतया तत्रासंभवादिति चेत् न, प्रश्नविषय एव प्रत्यर्थनियतानेकस्वभावाधिकरणादपि तदर्शनात्तदुपपतेः। प्रश्नस्य च सकलविषयस्य युगपत्प्रश्नकारिण्यसंभवात् संभवे च भवत्येव तद्वचनात् कुतश्चिदप्यंतरंगमलविश्लेषविजूंभितप्रज्ञापाटवस्य गणधरदेवादेः सकलविषयप्रतिपत्तिः ।अद्यापि कस्यचिद्वोधातिशयविशेषवतः सूत्रादेव तदत्तिर्वार्तिकादि - विवरणीय तदर्थविस्तारपरिज्ञानस्योपलंभात्।।129 ।।
शंकाकार कहते हैं कि फिर उनका वचन प्रत्यर्थ नियत कैसे होता है सकल दर्शन होने पर वहां सकलार्थता की ही उत्पत्ति होने से, नयरूप से नियत विषय का प्रतिपादन उससे नहीं होने से, यह कहना ठीक नहीं है, अनेक स्वभाव वाले उनके दर्शन से भी प्रश्नविषय के अनुसार प्रत्यर्थनियत की उपपत्ति होने से सकल विषयका एक साथ प्रश्न करनेवाले में असंभव होने से, संभव होने पर उनके किसी वचन से अन्तरंग मलविश्लेष से उत्पन्न प्रज्ञापाटव गणधर देवादि के संपूर्ण विषयों का ज्ञान होता ही है।आज भी किसी विशेष ज्ञानातिशय वाले के सूत्र से ही उसकी वृत्ति वार्तिक आदि व्याख्या करने योग्य अर्थ का विस्तृत ज्ञान देखा जाता है। 1129 ।।
कः पुनः प्रवचनस्याप्तोपज्ञत्वेन गुणो यतः प्रामाण्यमिति चेत, प्रमाणांतराविरोधलक्षणोऽविसंवाद एवं न ह्यसौ तत्र शब्दस्यैव सामर्थ्येनं
'सतीति शेषः । 2 स्वस्य प्रयोजनाभाबत्।
मोहात्। * चंद्रात्। ' अर्थे इति शेषः। 6 व्याक्रियमाण।
अवाधस्वरूपः।
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