Book Title: Pramana Nirnay
Author(s): Vadirajsuri, Surajmukhi Jain
Publisher: Anekant Gyanmandir Shodh Sansthan

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Page 114
________________ तत्र 'रागादिः क्वचिदत्यन्तहानिमान्' प्रकृष्यमाणहानिकत्वात् हेम्नि कालिकादिवदित्यनुमानतोऽध्यवसायात् ।।126 ।। कारण अविकल ज्ञान भी दो प्रकार का है-परोक्ष और प्रत्यक्ष ज्ञान के विकल्प से ।परोक्ष ज्ञान वाले गणधर देव हैं प्रवचन से प्राप्त संपर्ण वस्त विषय में अस्पष्ट ज्ञान परोक्ष ज्ञान होने से प्रत्यक्ष ज्ञानी तो परमदेव तीर्थंकर हैं, दूसरे केवली भी हैं, उनके संपूर्ण कषाय, रागद्वेष आदि दोष तथा घातिया कर्म रूपी मल के उपलेप को नष्ट कर देने से परमवैराग्य रूपी अतिशय के कारण उत्पन्न सकल द्रव्य और उसकी संपूर्ण पर्याय को स्पष्ट . ' प्रकाशित करने वाले प्रत्यक्ष ज्ञान के होने से।सर्वज्ञ की सिद्धि पहले की जा चुकी है।अतः उनका कहा हुआ होने से प्रवचन को गुणवत्ता युक्त ही है, उनके अगुणकारी वचन के असंभव होने से।यदि कोई कहे कि वीतराग के भी सराग के समान चेष्टा संभव होने से उनके वचन अगुणयुक्त हो सकते हैं तो यह कहना ठीक नहीं है उनके ऐसे वचन कहने का कोई प्रयोजन नहीं होने से कीड़ा के लिये भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि कीड़ा तो रागातिरेक से मलीन मन वालों का धर्म है, वह परम वीतरागी भगवान के नहीं हो सकती। तीर्थकर भगवान में वैराग्यातिशय है "रागादिःकृ चिदत्यन्तहानिमान् प्रकृष्यमाणहानिकत्वात् हेम्नि कालिकादिवत्" अर्थात् जैसे सोने में किट्टकालिमादि दोष होते हैं किंतु तपाने से वे बिल्कुल अलग हो जाते हैं, उसी प्रकार रागादि दोष का भी कहीं अत्यन्त अभाव हो जाता है, प्रकृष्यमाण हानिवाला होने से इस अनुमान से निश्चय होने से।।126 ।। व्यभिचारी हेतुः सकलशास्त्रविदः प्रभृति प्रकृष्यमाणहानिकत्वेऽपि ज्ञानस्य क्वचिदत्यंतहान्यभावादिति चेत् न, तस्यापि भस्मादौ निरवशेषस्यैव प्रहाणस्य प्रतिपत्तेः। आत्मन्येव रागादिवत्कुतो न तस्य तदिति चेत् न, तस्यैवात्मत्वेन' तत्रैव तथा तदभावस्य विरोधात् ।रागादेस्तु तदनन्यत्वेऽपि युक्तस्तत्राभावः सत्यपि तस्मिन् बोधस्वभावस्य तस्यापरिक्षयात् ।तत्स्वभावश्चात्मा "तथैवाहं जानामि" इति प्रत्यक्षेण प्रतिवेदनात् ।अनुमानस्य च तद्विलक्षणे तस्मिन् प्रत्यक्षविरुद्धपक्षतया नुपपत्तेः |तन्न परमवीतरागतया निर्व्यभिचारहेतुबलावधारिते भगवति वचनप्रलंभः संभवति ।[127 || शंकाकार कहते हैं-"प्रकृष्यमाण हानिकत्वात्" हेतु व्यभिचारी है, संपूर्ण शास्त्र के ज्ञाता आदि के अनुसार प्रकृष्यमाणहानिकत्व होने पर भी ज्ञान की कहीं भी (एकेन्द्रियादि में भी) आत्यन्तिक हानि नहीं होने से।ऐसा कहना ठीक नहीं है ।भस्मादि में ज्ञान की आत्यन्तिक हानि देखी जाने से रागादि की हानि के समान आत्मा में ही ज्ञान की आत्यन्तिक हानि क्यों नहीं होती, यह कहना ठीक नहीं है, ज्ञान को ही आत्मा होने के कारण, उसमें ही ज्ञान के अत्यंताभाव का विरोध होने से रागादि को उससे अभिन्न होने पर भी आत्मा में उसका अभाव होना युक्त है आत्मा में उसका अभाव होने पर भी बोध स्वभाव आत्मा का क्षय नहीं होने से आत्मा बोधस्वभाव वाला है “तथैवाहं जानामि" यह प्रत्यक्ष से 'निरवशेषेण। 'एकेंद्रियादौ। ' हेत्वर्थे तृतीया विभक्तिः। 'हेत्वर्थे तृतीया।

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