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अविनाभाव के कारण ही गमक है, केवल धर्मी धर्म के कारण नहीं अन्यथा “सर्वफलानि पक्वानि एकशाखाप्रभवत्वात्" यहां भी धर्मी के एकशाखाप्रभवत्व होने से हेतु को गमकत्व का प्रसंग आने से, अतिप्रसंग दोष आयेगा क्योंकि एक शाखा पर होने के कारण सभी फलों का पका होना आवश्यक नहीं है।विपक्षी बहिरर्थ के भाव के प्रति अविनाभाव का अभाव बताते हुए कहते हैं नीलादि को संवेदनत्व का समर्थन साधन है और बहिरर्थ का निषेध दूषण है, उनका प्रयोग इस प्रकार है-नीलादि संवेदन से भिन्न हैं, संवेदन के द्वारा ज्ञेय होने से अपने स्वरूप के समान इत्यादि।नीलादि जड़ नहीं हैं प्रतिभासमान होने से सुखादि के समान इत्यादि ।बहिरर्थ विशेष के कारण ही।बहिरर्थ के अभाव में बहिरर्थ विशेष की संभावना नहीं हो सकती, वृक्ष के अभाव में शिंशपा के अभाव की ही प्रतिपत्ति होने से ।साधन दूषण प्रयोग बहिरर्थ विशेष नहीं हैं, आरोपित रूप होने के कारण, यह कहना भी ठीक नहीं है, सर्वशक्ति रहित उस हेतु से अनिष्ट के समान इष्ट की भी सिद्धि नहीं होने से आरोपित नहीं होने पर भी यह ज्ञान ही है, बहिरर्थ नहीं, यह नहीं कह सकते।यदि नीलादि को प्रतिपाद्य मानते हो तो वह ज्ञान नहीं हो सकता प्रतिपादक? कहते हो तो उस प्रतिपादक ज्ञान से प्रतिपाद्य के प्रकृत अर्थ का ज्ञान कैसे होगा?अन्य ज्ञान से अन्य के अर्थ का ज्ञान नहीं होने से, यदि अन्य के ज्ञान से अन्य के अर्थ की प्रतिपत्ति होने लगे तो प्रत्येक आत्मा की बुद्धि के भेद की कल्पना विफल हो जायेगी।अतः यह साधन अर्थ विशेष ही है अतः इससे बहिरर्थ का व्यवस्थापन ठीक ही है, बहिरर्थ के अभाव में बहिरर्थ विशेष के भी अभाव की आपत्ति होने से। 183 ||
तथेदमपरं धर्मिसाधनं संति प्रमाणानीष्टसाधनादिति।न हि प्रमाण निरपेक्षमिष्टस्य विभ्रमैकांतादेः साधनमुपपन्नं, तद्विपर्ययस्यापि तथैव तत्प्राप्त्या तदेकांताभावप्रसंगात् ।तद्विपर्ययस्योपायाभावोपदर्शनेन प्रतिक्षेपे तदेकांत एव पारिशेष्यादवतिष्ठत इति चेदस्ति तर्हि प्रमाणमुपायाभावोपदर्शनस्यैव तत्वादन्यथा ततस्तदेकांतविपर्ययप्रतिक्षेपानुपपत्तेः । पारिशेष्यं च यदि न प्रमाणं न तद्वलात्तदेकांतस्य तद्विपर्ययव्यवस्थापनम्। तस्मात्प्रमाणमेव तत्तेत्रत्युपपन्नमेवेष्टसाधनान्यथा नुपपत्त्या प्रमाणास्तित्वव्यवस्थापनम् । एवमन्यदपि धर्मिसाधनमभ्यूहितव्यम्।।84||
यह दूसरा धर्मी साधन है-“संति प्रमाणानीष्टसाधनात्" प्रमाणनिरपेक्ष विभ्रम एकान्त आदि से इष्ट का साधन नहीं हो सकता अन्यथा अप्रमाण के एकान्त रूप से अभाव का प्रसंग होने से प्रमाण के विपरीत को उपाय के अभाव के रूप में दिखाने से उसका निराकरण करने पर वह एकान्त ही पारिशेष्य रूप से रहता है यदि ऐसा कहते हो तो प्रमाण सिद्ध हो जाता है, उपाय के अभाव दिखाना ही एकान्त होने से अन्यथा एकान्त विपर्यय का निराकरण नहीं हो सकता ।पारिशेष्य भी है, यदि प्रमाण न हो तो उसके आधार पर एकान्त की प्रमाण के विपरीत स्थापना नहीं हो सकती ।अतः विभ्रम एकान्त आदि की स्थापना से भी प्रमाण की ही सिद्धि हाती है।अतः प्रमाण के बिना इष्ट साधन नहीं हो सकता, इससे प्रमाण के अस्तित्व की व्यवस्था सिद्ध हो जाती है, इसी प्रकार अन्य भी धर्मीसाधन को जानना चाहिये।।84 ।।
प्रसक्तस्य प्रतिषेधे अन्यत्र प्रसंगात् शिष्यमाणे संप्रत्ययः परिशषसास्य भावः पारिशष्यं । विभ्रमैकातादिव्यवस्थापने।
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