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विशेष श्रावणत्व की भी विपक्ष (नित्यत्व) से व्यावृत्ति का उसी व्यावृत्ति से अवश्य निर्णय होने से।श्रावणत्वादि विशेष रहित सत्व से भी शब्द के अनित्यत्व की भी सिद्धि हो जाने पर सत्व विशेष श्रावणत्व की क्या आवश्यकता है?यह कहना ठीक नहीं है।उत्पत्तिमत्त्वादि में भी यही प्रसंग आने से ।अतः सत्व सामान्य के समान सत्व विशेष श्रावणत्व का भी साध्य के साथ अविनाभाव निश्चित होने पर प्रयोगकाल में श्रावणत्वादि विशेष से साध्य के से सत्व विशेष श्रावणत्व को भी अनित्यत्व की सिद्धि में गमकत्व है।अतः श्रावणत्व हेतु को अनैकान्तिकत्व की कल्पना ठीक नहीं है।।109 ।।
'साध्यार्थाभावनिश्चितो विरुद्धो हेत्वाभासः ।स चानेकधा, धर्मतद्विशेषाभ्यां धर्मितद्विशेषाभ्यां च विपरीतस्यैव साधनात्। तत्र धर्मविपरीतसाधनो यथानीलत ज्ज्ञानयोरभेदः सहोपलंभनियमात् द्विचंद्रवदिति ।तत्साधनत्वं चाऽस्य यौगपद्यार्थे सहशब्दे तन्नियमस्याभेदविरुद्ध नानात्व एव भावात्। अभेदेऽपि चंद्रद्वितये भाव इति चेत् न, तत्राऽपि यथाप्रतिभासं भेद एव भावात् । यथातत्वमभेदेपीति चेत् न, तदानीमभेदस्यानवभासनात् ।न चानवभासिनि तस्मिंस्तन्नियमस्य तदनुगमः शक्यो गंतुमवभासिन्येव साध्ये तदनुगमस्य हेत्वंतरेषु प्रतिपपत्तेः । सन्नपि तत्र तन्नियमो विरुद्ध एव धर्मविशेषविपरीतसाधनत्वात् धर्मविशेषो हि नीलतज्ज्ञानयोः सिसाधयिषतां तात्विकमेकत्वं न च तस्यायं साधनः किं तात्विकस्यैव तस्यैव चंद्रद्वये स्वयं मिथ्याज्ञानविषयत्वेनातात्विके भावात् ।।110||
साध्य के अभाव के साथ निश्चित अविनाभाव वाला हेतु विरुद्ध हेत्वाभास है।वह अनेक प्रकार का है-धर्म तथा धर्म विशेष और धर्मी तथा धर्मी विशेष से विपरीत को ही सिद्ध करने से धर्म विपरीत साधन-जैसे नील और नील के ज्ञान में अभेद है सहोपलंभ नियम से द्विचन्द्र के समान ।सहोपलंभ नियम साधन धर्म विपरीत साधन है, युगपत् अर्थ में सह शब्द में सहोपलंभ नियम के अभेद के विरुद्ध नानात्व में ही होने से।चन्द्रद्वय में अभेद में भी सहोपलंभ नियम है, यह कहना भी ठीक नहीं है, प्रतिभास के अनुसार भेद ही होने से।यथाप्रतिभासत्व अभेद में भी है, यह कहना ठीक नहीं है, उस समय अभेद का अवभास नहीं होने से अभेद का अवभास नहीं होने पर सहोपलंभ नियम अभेद का अविनाभावी नहीं जाना जा सकता, साध्य का अवभास होने पर ही दूसरे हेतु में उसके अविनाभाव की प्रतिपत्ति होने से।अभेद में सहोपलंभ नियम होने पर भी धर्म विशेष से विपरीत का साधन होने से यह हेतु विरुद्ध ही है क्योंकि धर्मभेद है, उसका विशेष तात्विकत्व है, उससे विपरीत अतात्विकत्व है, उसका साधन होने से वह धर्म विशेष विपरीत साधन है।धर्मविशेष नील और नील के ज्ञान में तात्विक एकत्व को सिद्ध करना है किंत उसका यह साधन नहीं है, तात्विक उसी साधन को चन्द्रद्वितय में स्वयं मिथ्या ज्ञान में होने के कारण अतात्विक में होने से। 111011
1 "साध्यार्थाविनाभावनियमनिश्चितो विरुद्धो हेत्वाभास" इत्यपि कुत्रचित्पाठः । २ क्रियाविशेषणमदः। ३ सहोपलंभनियमकाले। *धर्मविशेषविपरीतदर्शनं दर्शयति। • अभेदे। 'धर्मो भेदस्तस्य विशेषस्तात्विकत्वं तस्माद्विपरीतमतात्विकत्वं तस्य साधनं तस्य भावस्ततत्वं तस्मात।
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