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तद्वस्तुत्ववच्छब्देऽप्यनित्यत्वसामान्यस्यापि तद्विशेषेऽन्यथाऽनुपपत्तिमत्त्वादुपपन्नमेव हेतुत्वम् ।।103 ।।
तब प्रतिज्ञार्थंक देशासिद्ध मानना चाहिये जैसे-अनित्यः शब्दः शब्दत्वात् ।शब्द को साध्य धर्म धर्मि के समदाय रूप प्रतिज्ञार्थ के एक देश में रहने के कारण साध्य धर्म (अनित्यत्व) वाला सिद्ध नहीं होने से हेतत्व नहीं है यदि ऐसा कहते हो तो फिर धर्मित्व भी नहीं होना चाहिये फिर शब्द को अनित्य सिद्ध करने में कतकत्व आदि भी कैसे हेत हे शब्द रूप धर्मी (आश्रय) के ही असिद्ध होने से ।परवादी कहते हैं-धर्म धर्मी के समुदाय रूप से ही शब्द को साध्यत्व है, पृथक नहीं, प्रसिद्ध होने से, अतः धर्मित्व है यदि ऐसा कहते हो तो शब्दत्व को हेतुत्व भी हो जायगा, दोनों में समानता होने से।धर्मी के प्रति शक्तिहीन होने पर उसको हेतुत्व कैसे होगा?यह कहना ठीक नहीं है, धर्मभेद होने से ।साध्य धर्म का अधिकरण होने से जिस स्वरूप से उसको धर्मित्व है, उसी स्वरूप से हेतुत्व भी नहीं है, अपितु अविनाभावनियम से हेतुत्व है।फिर विपक्ष व्यावृत्ति कैसे है?जिससे शब्द के अनित्यत्व में शब्दत्व के अविनाभाव का नियम हो यदि यह कहते हो तो सत्वविशेष से कृतकत्व आदि के समान ही विपक्ष व्यावृत्ति है।सत्व हेतु से ही साध्य (अनित्यत्व) की सिद्धि हो जाने से शब्दत्व हेतु विफल है, यह भी नहीं कह सकते कृतकत्व आदि में भी विफलत्व का प्रसंग आने से शब्द को प्रतिज्ञार्थेकदेशत्व कैसे है?शब्द शब्द से निर्दिष्ट शब्द विशेष को ही हेतु होने से शब्द सामान्य को नहीं अतः शब्दत्व हेतु को असिद्धत्व कैसे है?शब्द शब्द से भी सामान्य का ही निर्देश होने से यदि यह कहते हो "सर्वक्षणिक सत्वात्" यत्सत् तत्क्षणिक संश्च शब्द: यह अनुमान भी विफल हो जायगा ।वस्तु (शब्द)को अवस्था (अनित्यत्व) सिद्ध करने में असमर्थ होने से वस्तु शब्द विशेष में सत्वादि हेतु से अनित्यत्व की व्यवस्था करने में उसको उसका कारणत्व है, अवस्तु सामान्य में नहीं, यह दोष नहीं है-“अनित्यः शब्दः कृतकत्वात्" इस अनुमान से शब्द सामान्य के अनित्य सिद्ध करने से शब्द विशेष के भी अनित्यत्व का परिज्ञान होने से, शब्द सामान्य का शब्द विशेष के साथ अविनाभाव होने से।यदि ऐसा कहते हो तो लिंग से ही विशेष के भी अनित्यत्व का ज्ञान क्यों नहीं हो जायेगा?विशेषों के अनन्त होने से उसमें लिंग के अविनाभाव का ज्ञान कठिन होने से यदि यह कहते हो तो सामान्य के भी अनन्त होने से उसमें भी लिंग के अविनाभाव का ज्ञान कठिन होने से वहां भी समानता है।अतः सामान्य को धर्मित्व नहीं है, विशेष को ही धर्मित्व होने से विशेष के प्रतिज्ञार्थंकदेशत्व से असिद्ध होने पर सामान्य को भी प्रतिज्ञार्थंकदेशत्व कैसे है?विशेष से भिन्न सामान्य का ही अभाव होने से, यदि ऐसा कहते हो तो फिर लिंग नाम की कोई वस्तु नहीं रहेगी, सत्वादि लिंग का भी अभाव होने से।सत्वादि लिंग हैं उस विषयक सत् सत् इस अनुगम प्रत्यय के होने से, यह कहना भी ठीक नहीं है, शब्द शब्द इस प्रकार के अनुगम प्रत्यय के यहां भी समान रूप से होने से।अतः शब्द को अनित्य सिद्ध करने में शब्दत्व हेतु असिद्ध नहीं है।रूपादि के अनित्य सिद्ध करने में रूपादित्व हेतु भी असिद्ध नहीं है, शब्दत्व के द्वारा आक्षेप का समाधान हो जाने से।"अनित्य शब्दोऽनित्यत्वात्" इस हेतु को प्रतिज्ञार्थंकदेशत्व के कारण असिद्ध नहीं कहा जा सकता, शब्दत्व में भी यह आपत्ति होने से उसके धर्मित्व के अभाव का प्रसंग होने से।समुदाय की अपेक्षा भी उसके भी उस समुदाय का अवयव विशेष होने के कारण धर्मित्व के अभाव का प्रसंग आयेगा ।फिर वह असिद्ध कैसे हैं यदि यह कहते हो तो स्वरूप से निर्णय नहीं होने
व्याप्तत्वात्, वस्तुत्ववदिति वस्तुत्वसामान्यस्य विशेषनित्यत्वव्ययवस्थापकतदनित्यत्वसामान्यस्यं तद्विशेषे नित्यविशेषेऽन्यथानुपपत्तिमत्त्वादुपपन्नमेव हेतुत्वम् ।