Book Title: Pramana Nirnay
Author(s): Vadirajsuri, Surajmukhi Jain
Publisher: Anekant Gyanmandir Shodh Sansthan

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Page 60
________________ पौ' दगलिकं मनः प्रतिपत्तव्यं तदायत्तजन्मजत्वे सुखादिस्मरणादीनां काकादिष्वमनस्केषु तदभावानुषंगात् । न च तत्र न संत्येव तानि स्मरणप्रत्यभिज्ञानादिनिबंधनतयास्वदेहोपलब्धस्य प्रवृत्त्यादेस्तत्रापि प्रतिपत्तेरतः क्षयोपशमविशेष लिंगितः कश्चिदात्मप्रदेश एवानिंद्रियं तत्प्राधान्येन सुखाद्युत्पत्तेः काकादिष्वप्युपपत्तेरत एव गुरूभिरनंतवीर्यदेवैरपि तस्यैवानिंद्रियत्वमभ्यनुज्ञातम् । ।55।। अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष क्या है? यदि यह कहते हो तो सुखादि तथा स्मरणादि ज्ञान के स्वरूप का वेदन ही अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष है वहां स्पष्ट अवभासी होने के कारण उसे प्रत्यक्ष नाम दिया जाने से, यहां अनिन्द्रिय पौद्गलिक (अष्टदल कमलाकार) मन नहीं जानना चाहिये, यदि पौद्गलिक मन से प्रत्यक्ष ज्ञान मानोगे तो अमनस्क कौए आदि में सुखादि स्मरणादि के ज्ञान के अभाव का प्रसंग आयेगा । काकादि में सुखादि स्मरणादि का ज्ञान नहीं है ऐसा नहीं है वहां सुखादि स्मरणादि ज्ञान होते हैं स्मरण प्रत्यभिज्ञान आदि के कारण अपने शरीर की प्रवृत्ति आदि वहां भी होने से । अतः क्षयोपशम विशेष से संबंधित आत्म प्रदेश ही अनिन्द्रिय है, उसी की प्रधानता से सुखादि की उत्पत्ति होने से काकादि में भी उत्पत्ति होने से । अतः अनन्तवीर्य गुरू ने भी उसी को (क्षयोपशम विशेष से संबंधित आत्मप्रदेश को ) ही अनिन्द्रिय माना है । 155 ।। किं पुनरेव द्रव्यमनसः परिकल्पनेनेति चेत्, द्रव्येन्द्रियस्य चक्षुरादेरपि किं? न किंचित्, अत एव तद्व्यापाराभावेऽपि सत्य स्वप्नादावन्तरंगाद्वि शुद्धिविशेषादेव रूपादिदर्शनं । तदिंद्रियस्य तु जाग्रद्दशाभाविनि तद्दर्शने तद्धेतोर्विशुद्धि विशेषस्य तदधिकरण' जीवप्रदेशाधिष्ठानत्वेन निमित्तमात्रत्वादेव' कल्पनमत एव गवाक्षस्थानीयतां तत्र व्यावर्णयति तत्त्ववेदिन इति चेत्, तर्हि द्रव्यमनसोऽपि परिकल्पनं क्वचित्सकलेंद्रियस्य सुखादिवेदने तदवष्टब्धजीवप्रदेशाश्रयविशुद्धिविशेषनिबंधने निमित्ततयैव । न च निमित्तेन सर्वदा " तत्कार्ये भवितव्यमिति नियमो गवाक्षादिना व्यभिचारात् । कुतः पुनः शक्तिविशेषस्य क्षयोपशमात्मनोऽवगमो यतस्तत्प्रभवत्वमिंद्रियादिप्रत्यक्षस्येति चेत्, तत एव प्रत्यक्षात् । न तावत्तदहेतुकं कादाचित्कत्वात् । नापि द्रव्येंद्रिय मात्रा तदभावेऽपि क्वचिदुत्पत्तेः, 'कदाचित्तद्भावेऽप्यनुत्पत्तेः । तादृशं च तदात्मनि कारणान्तरस्य प्राधान्यमावेदयति । तच्च यथोक्तशक्तिविशेष एवेत्युपपन्नमिंद्रियादिप्रत्यक्षस्य तत्प्रभवत्वमिति । 156 ।। 1 अष्टदलकमलाकारं । क्षयोपशमविशेषलिंगितात्मप्रदेशस्यानिंद्रियत्वे । 2 3 पंचेंद्रियस्य । जीवस्येति । जीवस्येति । विवक्षित इति शेषः । द्रव्येंद्रियामावेपि । 8 सत्यस्वप्नादौ । 9 5 6 7 10 अन्यवस्तुगतचित्तकाले । द्रव्येंद्रियभावाभावाभ्यामुत्पत्यनुत्पत्तिविकलं । 37

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