Book Title: Pramana Nirnay
Author(s): Vadirajsuri, Surajmukhi Jain
Publisher: Anekant Gyanmandir Shodh Sansthan

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Page 59
________________ प्रतिवेदन होने से असत् का नहीं, अतिप्रसंग होने से तो उसका यह कथन भी समीचीन नहीं है, स्मृति होने से पहले उसके अप्रतिवेदन का प्रसंग होने से। प्रमोष के कारण उसका प्रतिवेदन होता है, यदि यह कहते हो तो यह प्रमोष क्या है?स्वरूप से पतन यह कहते हो तो फिर स्मृति ही नहीं होगी, फिर उससे केशादि का प्रतिवेदन कैसे होगा। 153 ।। स्वरूपात्प्रच्युताप्यस्ति स्मृतिर्यदि मते तव। सुप्तो न किं प्रबुद्धोऽस्तु जीविं तोऽस्तु मृतो न किंम् ।। यदि तुम्हारे यहां स्वरूप से पतन होना भी स्मृति है तो फिर सोया हुआ जागा हुआ क्यों नहीं हो जायगा और मरा हुआ भी जीवित क्यों नहीं हो जायगा? अथ स्वविषयस्य पुरोवर्तितया ग्राहकत्वमेव' "कुतश्चित्तस्याः प्रमोषः, तन्न। पुरोभावस्यासत्वे ग्रहणानुपपत्तेः, अन्यथा केशादेरेवासतस्तत्संभवादसत् ख्यातिरेव संभवेन्न स्मृतिप्रमोषः ततः स्थितं यथा स्वहेतुसामर्थ्यादेवासदवभासिन इन्द्रियज्ञानस्य विषयनियमस्तथा सदवभासिनोऽपि। तन्न, सारूप्यात्तत्कल्पनमुपपन्नं । इति निरूपितमिंद्रियप्रत्यक्षम् ।।54 || अतद देशत्व से अनुभव किये हए अपने विषय को पूर्ववर्ती होने से ग्रहण करना ही किसी कारण से स्मृति का प्रमोष है, यह कहना भी ठीक नहीं है, पहले विद्यमान न होने पर उसका ग्रहण नहीं होने से।यदि पुरोभाव के न होने पर भी उसका ग्रहण होता है तो फिर असत् केशादि का भी ग्रहण संभव होने से असत्ख्याति ही संभव होगी, स्मृतिप्रमोष नहीं।अतः जैसे अपने कारण सामर्थ्य से असत् को जानने वाले इन्द्रिय ज्ञान का विषय नियम है उसी प्रकार सत् को अवभास करने वाले इन्द्रिय ज्ञान का भी है।अतः सारूप्य से विषयग्रहण की कल्पना सिद्ध नहीं होती।इस प्रकार इन्द्रिय प्रत्यक्ष का निरूपण किया।154|| * * * अधुना अनिद्रियप्रत्यक्षस्वरूपकथनार्थमाह। अब अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष का स्वरूप कहने के लिए कहतें है किं पुनरनिंद्रियप्रत्यक्षमिति चेत्, सुखादेः स्मरणादिज्ञानस्य च स्वरूपवेदनमेवं तत्र स्पष्टावभासितया प्रत्यक्षव्यपदेशोपपत्तेः ।अनिद्रियं चेह 1सुप्तश्चेत्प्रबुद्धस्तर्हि तस्य स्मरणेन भवितव्यं तच्च तस्य नास्तीति कथं तस्य तत्त्वमिति कस्यचित्प्रश्नस्यापि स्वरूपात्प्रच्युता स्मृतिरस्तीत्युत्तरं वाच्यं ।एवमग्रस्थे चतुर्थोशेऽपि। ' अतद्देशत्वेनानुभूतस्य। 3 ग्रहणमेव। . कारणदिति शेषः। 5 पुरोविद्यमानत्वस्य। ' पुरोभावस्यासत्वेऽपि तद्ग्रहणात् । 36

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