Book Title: Pramana Nirnay
Author(s): Vadirajsuri, Surajmukhi Jain
Publisher: Anekant Gyanmandir Shodh Sansthan

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Page 75
________________ चेदागतं पुनरप्यनुमानम्, अवधृतव्याप्तिकादर्था'दर्थातरप्रतिपत्तेरेव तत्त्वात्। न चैवं प्रत्यक्षादनुमानवदनुमानादर्थापत्तिरप्यन्यन्यदेव प्रमाणं, तदविशेषात् । कथमविशेषे . बहिर्व्याप्तेरनुमानस्यांताप्तेश्चार्थापत्तेर्भावादिति चेन्न । अप्यनुमानेऽप्यंताप्तेरेव गमकांगत्वेन निवेदयिष्यमाणत्वात्। ततः पर्वतोऽयमग्निमान् धूमवत्त्वादिति वाऽग्निरयं दाहशक्तियुक्तो दाहदर्शनादित्यप्यनुमानमेव नापरं प्रमाणम् । ।75 ।। - इतरवादियों को पर (आत्मा) की प्रतिपत्ति किससे होती है जिससे वे अनुमान को अप्रमाण मानते हैं, प्रत्यक्ष से, यह नहीं कह सकते प्रत्यक्ष से शरीर का ही ज्ञान होने से ज्ञानात्मक आत्मा का नहीं आत्मा के शरीर से अभिन्न होने के कारण शरीर का ज्ञान ही आत्मा का ज्ञान है, यह कहना उचित नहीं हैं, शरीर के प्रत्यक्ष होने पर बुद्धि के विकल्प में संशय होने से शरीर को देखने से यह पंडित है, यह मूर्ख है, यह सज्जन है, यह असज्जन है, यह निश्चय नहीं होता, बिना परीक्षा के सम्मान और अपमान का प्रसंग आता है।शरीर से भिन्न की प्रतिपत्ति मत हो, अनुमान भी न हो यदि ऐसा कहते हो तो अनुमान के अभाव में शास्त्र भी कैसे प्रमाण होगा?शास्त्र के अनुमान में प्रसिद्ध भूत उपादान चैतन्य आदि का विषय होने से, अनुमान के अभाव में निर्विषय होने का प्रसंग होने से शास्त्र ही नहीं होगा और फिर वह शास्त्र किस लिए होगा, अपने लिए तो होगा नहीं, स्वयं को पहले से ही उसके अर्थ को जानने से।यदि वह स्वयं नहीं जानेगा तो उससे शास्त्र का प्रणयन नहीं हो सकेगा ।शास्त्र को जानने वाला पुरूष भी क्रीड़ा के लिए शास्त्र बनाता है, यह कहना भी ठीक नहीं है, शास्त्र में विचार होने से विचार को कर्कश तथा चित्त को कष्ट देने के कारण होने से वह क्रीड़ा का अंग नहीं हो सकता ।पर के लिए भी शास्त्र का प्रणयन नहीं हो सकता पर की प्रतिपत्ति नहीं होने से।पर की प्रतिपत्ति होती है, व्यापारादि हेतु से।बुद्धिपूर्वक अपने शरीर में प्रतिपत्ति होती है यदि यह कहते हो तो पुनः अनुमान आ गया ।ग्रहण किये गये व्याप्ति हेतु से साध्य की प्रतिपत्ति को ही अनुमानत्व होने से।पुनः प्रभाकर मत का निराकरण करते हुए आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार प्रत्यक्ष से अनुमान प्रमाण की सिद्धि के समान अनुमान से अर्थापत्ति भी अन्य प्रमाण है, समानता होने से यह भी नहीं कह सकते।समानता कैसे है?अनुमान की बहिर्व्याप्ति होने से और अर्थापत्ति की अन्तर्व्याप्ति होने से यह कहना भी ठीक नहीं है, अनुमान में भी अन्तर्व्याप्ति के गमक होने का, आगे वर्णन किया जाने से। अतः यह पर्वत अग्नि वाला है धूमवाला होने से तथा यह अग्नि दाह शक्ति युक्त है, दाह (जलन) के देखने से यह अनुमान ही प्रमाण है, अन्य नहीं। 175।। अभावस्तर्हि प्रमाणांतरं प्रत्यक्षादावनंतर्भावात् इति चेत् न, 'तस्याज्ञानत्वेन प्रामाण्यस्यैवासंभवात् ।ज्ञानमेवासौ, भूतले तज्ज्ञानादेव' घटा लिंगात्। * प्रभाकरमतमाशंक्य निराकरोति। .. ' अर्थापत्तेः। * सर्वमनेकांतात्मकं सत्वादित्यादिसपक्षविकलोदाहरणादिष्वभिधास्यमानत्वात् । भाट्ट आह। अभावप्रमाणं ज्ञानमज्ञानं वेति विकल्पद्वयं मनसि निधाय प्राह जैनः । अज्ञानस्य प्रामाण्यासंभवः प्रागेव समर्थितः । 52

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