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भाग सर्वावधि का विषय है।विशुद्धिरूपी अतिशय भी पूर्वपूर्व की अपेक्षा उत्तर उत्तर में अधिक है।देशावधि से अधिक विशुद्ध परमावधि और परमावधि से अधिक विशुद्ध सर्वावधि है।।59 ।।
तथा मनःपर्ययोऽपि 'संयमैकार्थसमवायी तदावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशम विशेषनिबन्धनः परमनोगतार्थसाक्षात्कारी प्रत्ययः। सोऽपि द्वधा, ऋजुमतिर्विपुल मतिश्चेति। तत्र प्रगुणमनोवाक्कायैर्निर्वर्तितोऽर्थः पूर्वस्य, प्रगुणैरित रैर्वा मनोवाक्कायैर्निर्वर्तितोऽनिर्वर्तितश्चार्थः पश्चिमस्य विषयः । सूक्ष्मतया तु सर्वावधि - विषयानंतैकभागे पूर्वस्य तदनंतैकभागेपरस्य निबंधः ।तथा विशुद्ध्यतिशयविशेषवत्त्वादप्रतिपातित्वाच्च पूर्वस्मादुत्तरस्य विशेषो वेदितव्य ।इति व्याख्यातं विकलमतींद्रियप्रत्यक्षम् ||60||
मनःपर्यय ज्ञान भी संयम के साथ समवाय रूप से रहनेवाला मनः पर्यय ज्ञानावरण तथा वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से होने वाला दूसरे के मन के विषय को साक्षात् करने वाला ज्ञान है।वह भी दो प्रकार का है-ऋजुमती और विपुलमती ।सरल मन वचन काय से किये गये विषय को ऋजुमती जानता है तथा सरल और वक मन वचन काय से किये गये अथवा न किये गये दूसरे के मन के विषय को विपुलमती जानता है।सूक्ष्मता की दृष्टि से सर्वावधि के विषय का अनन्तवां भाग ऋजुमति का विषय है, और ऋजुमति के विषय का अनंतवॉ भाग विपुलमती का विषय है।विशुद्धि रूपी अतिशय तथा अप्रतिपातित्व (केवल ज्ञान होने तक न छूटना) की अपेक्षा ऋजुमती की अपेक्षा विपुलमती में अधिक विशेषता है।इस प्रकार विकल अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष का वर्णन किया। 160 ||
सकलं तु तत्प्रत्यक्ष प्रक्षीणशेषाघातिमलसमुन्मीलितं सकलवस्तु याथात्म्यवेदिनिरतिशयवैशद्यालंकृतं केवलज्ञानं। तद्वतः पुरूषस्य सदावे किं प्रमाणमिति चेत्। इदमनुमानं-अस्ति सर्वज्ञो निर्वाधप्रत्ययविषयत्वात् सुखादिनीलादिवत्। न च तत्प्रत्यये विवादस्तन्निषेधवादिनोऽपि तद्भावादन्यथा तन्निषेधस्यैव तद्विषयपरिज्ञानाभावेनासंभवप्रसंगात्। निर्बाधत्वमपि तस्य प्रत्यक्षादीनामन्यतमस्यापि तद्बाधकत्वासंभवात् ।तद्बाधकत्वं नाम तद्विषयासत्वनिवेदनमेव। तच्च प्रत्यक्षेण यदि क्वचित् कदाचित्किंचिदनिष्टमभ्युपगमात्। सर्वत्र सदापीति चेन्न, तस्य सर्वविषयत्वप्रसंगात्। अन्यथा तत्र तेन तन्निवेदनानुपपत्तेः । भूतलमवलोकय तैव तेन तत्र घटाद्यसत्ववेदनस्य प्रतीतेः प्रत्यक्षाभावे च
आत्मलक्षणार्थे । ऋजु।
परेषां। 4 निष्पन्नः।
वकैः।
प्रवृत्तिः । ' प्रदुर्भूतम्।
पुंसा।
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