Book Title: Pramana Nirnay
Author(s): Vadirajsuri, Surajmukhi Jain
Publisher: Anekant Gyanmandir Shodh Sansthan

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Page 64
________________ तत्पूर्वकत्वेनानुमानस्याप्यसंभवात्, न तस्यापि तद्वाधकत्वं । यदपि विवादापन्नः सर्वोपि देशादिः सर्वज्ञविकलो देशादित्वात् प्रसिद्धदेशादिवदिति, तदपि न साधु | देशादेः सर्वस्याप्रतिपत्तौ हेतोराश्रयस्वरूपासिद्धदोषोपनिपातात्, प्रतिपत्तौ च तत्प्रतिपत्तिमतः सर्वज्ञत्वाप्रत्त्या सर्वज्ञनिराकरणानुपपत्तेः । ।61 । । सकल प्रत्यक्ष केवल ज्ञान है, जो संपूर्ण घातिया कर्म रूपी मल के क्षय हो जाने पर संपूर्ण वस्तुतत्व को यथार्थ जानने वाला अत्यधिक निर्मलता से अलंकृत होता है । केवल ज्ञान वाले पुरूष के होने का क्या प्रमाण है? यदि यह प्रश्न करते हो तो यह अनुमान प्रमाण है - सर्वज्ञ है निर्बाध ज्ञान का विषय होने से, सुखादि तथा नीलादि के समान उसके ज्ञान में विवाद भी नहीं है, जो उसका निषेध करनेवाले हैं उनके भी निर्बाध ज्ञान वाला होने से उसका निषेध ही उस विषय के ज्ञान के बिना असंभव हो जायगा । प्रत्यक्षादि किसी प्रमाण को उसका बाधक नहीं होने के कारण उसकी निर्बाधता भी है । बाधकत्व उस विषय के असत्व का निवेदन ही है । वह प्रत्यक्ष से कहीं कदाचित् किंचित् कहो तो ठीक है, सर्वत्र सर्वदा बाधकत्व नहीं कह सकते, जो सर्वत्र सर्वदा सर्वज्ञ का अभाव मानते हैं उन्हीं के सभी विषय को जानने का प्रसंग होने से । अन्यथा उसके द्वारा सर्वत्र सर्वदा सर्वज्ञ का अभाव नहीं कहा जा सकता । पृथ्वी को देखते हुए ही उसके द्वारा वहां घटादि के न होने के वेदन की प्रतीति होने से । प्रत्यक्ष के अभाव में प्रत्यक्ष पूर्वक होने वाला अनुमान भी नहीं हो सकता । अतः अनुमान भीं सर्वज्ञ का बाधक नहीं है। जो यह अनुमान है कि विवादापन्न सभी देशादि सर्वज्ञ से रहित हैं देशादि होने के कारण प्रसिद्ध देशादि के समान | वह भी ठीक नहीं है । सभी देशादि के न जानने पर हेतु के आश्रयासिद्ध और स्वरूपासिद्ध का प्रसंग आने से सभी देशादि की प्रतिपत्ति वाले को ही सर्वज्ञत्व होने से सर्वज्ञ का निराकरण नहीं हो सकने से। 161 1 यदपीदं-विवादापन्नः सर्वज्ञो न भवति पुरूषत्ववक्तृत्वादे रथ्यापुरूष वदित्यनुमानं तदपि न तस्य बाधकं । पुरुषत्वादेर्हेत्वाभासतया निरूपयिष्यमाणत्वेन तदुद्भावितस्य तस्याप्यनुमानाभासत्वेनैवावस्थितेः । नाप्यर्थपत्तिस्तदुत्थापकस्य सर्वेज्ञाभावमंतरेणानुपपन्नस्य कस्यचिदर्थस्यानध्यवसायात् । नाप्यहमिव सर्वे पुरुषाः प्रतिनियतमर्थमिंद्रियैः पश्यंतीत्युपपन्नमुपमानमपि, सर्वपुरुषाणां कुतश्चिद्विषयी स्वसर्ववेदित्वापत्तेरविषयीकरणे त्वस्मृतिविषयत्वेनोपमेयत्वानुपपत्तेः । स्मरणविषयत्वेन हि तेषां स्वसादृश्यविशिष्टतयोपमेयत्वं । । 62 । । करणे जो यह अनुमान है कि विवादापन्न सर्वज्ञ नहीं होता, पुरूषत्व वक्तृत्वआदि के कारण रथ्यापुरूष के समान, यह भी सर्वज्ञ का बाधक नहीं है । पुरुषत्व आदि को हेत्वाभास के रूप में बताया जायेगा | अतः उसके द्वारा होने वाला अनुमान भी अनुमानाभास ही होगा | अर्थापत्ति भी सर्वज्ञ का बाधक नहीं है । सर्वज्ञ के अभाव के बिना उत्पन्न न होने वाले किसी विषय को उसके उत्थापक का निश्चय नहीं होने से। मेरे समान सभी पुरूष उच्यते इति शेषः । 2 अर्थापत्तिलक्ष्मादः - प्रमाणषट्विज्ञातो यत्रार्थो नान्यथा भवेत् । अदृष्टं कल्पयेदेनं सार्थापत्तिरुदाहृता । 3 उपमानलक्षणमदः- दृश्यमानाद्यदन्यत्र विज्ञानमुपजायते । सादृश्योपाधि तत्त्वज्ञैरुपमानमिहोच्यते । 41 1

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