Book Title: Pramana Nirnay
Author(s): Vadirajsuri, Surajmukhi Jain
Publisher: Anekant Gyanmandir Shodh Sansthan

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Page 71
________________ अन्यथा तद्रूप समारोप का अभाव होने से उसका निराकरण करने के लिये अनुमान भी नहीं होगा |आत्म दर्शन रूप उस लक्षण का अभाव होने से उसके कारण होने वाला संसार भी नहीं होगा, फिर उस संसार को नष्ट करने के लिए मोक्षार्थियों की चेष्टा भी नहीं होगी मीमांसक कहते हैं- "स एवाय" इस ज्ञान को प्रत्यभिज्ञान मान भी लें किंतु 'अयमिव के समान वह अथवा इससे विलक्षण वह है यह ज्ञान प्रत्यभिज्ञान नहीं हैउसके उपमान होने से।यदि ऐसा कहते हो तो वह इससे उन्नत है, या अवनत है स्थूल है अल्प है, हृस्व है, दीर्घ है इत्यादि ज्ञान के उपमानत्व का अभाव होने से दूसरा प्रमाण क्यों नहीं माना जायगा?ज्ञात वस्तु की अपेक्षा जाने गये उन्नतत्व आदि से युक्तज्ञान से प्रत्यभिज्ञानत्व की ही उपपत्ति होती है यदि यह कहो तो उपमान को भी प्रत्यभिज्ञानत्व सिद्ध ही है, उसके द्वारा भी उस प्रकार उसका उसके समान ही सादृश्यादि से ज्ञान होने से।।6911 ज 'भवतु तर्हि गौरिव गवय इत्यागमाहितसंस्कारस्य पुनर्गवयदर्शने सोऽयं गवयशब्दस्यार्थ इति शब्दतदर्थसंबंधपरिज्ञानमुपमानमिति चेत् न, तत्राऽपि सामान्यतः प्रागागमावगतस्यैव पुनः सन्निहितविशेषविशिष्टतया परिज्ञानतः प्रत्यभिज्ञानत्वस्यैवोपपत्तेः । अन्यथा षड्भिः चरणैश्चंचरीकः, क्षीरनीरविवेचनचतुर चंचुर्विहंगमो हंसः, एकविषाणो मृगः खड्गीतिवचनोपजनितवासनस्य पुनस्तद् दर्शने सोऽयं चंचरीकादिशब्दस्यार्थ इति वाच्यवाचकसंबंधपरिज्ञानस्याप्यु - पमानवदप्रत्यभिज्ञानत्वे प्रमाणांतरस्य प्रमाणच तुष्टयनियमव्याघातविधायिनः प्रसंगात्। तन्न प्रत्यभिज्ञानादन्य दुपमानमित्युपपन्नं प्रत्यभिज्ञानतयैव तस्यापि प्रामाण्यम्।।7011 नैयायिक कहते हैं कि फिर तो गौ के समान गवय होता है इस प्रकार आगम से संस्कार प्राप्त पुरूष के पुनः गवय को देखने पर वह यह गवय शब्द का अर्थ है इस प्रकार शब्द और उसके अर्थ के संबंध का ज्ञान उपमान है, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है।वहां भी सामान्यत: पहले आगम से जाने हए का ही बाद में प्राप्त विशेष का विशिष्ट ज्ञान होने से प्रत्यभिज्ञानत्व की ही उपपत्ति होने से अन्यथा छ:चरणों वाला भौंरा है. क्षीर नीर का ज्ञान करने में प्रवीण चोंच वाला पक्षी हंस है, एक श्रृंग वाला हिरण है, यह तलवार वाला है, इत्यादि वचनों से उत्पन्न संस्कार वाले व्यक्ति के पुनः उसके देखने पर वह यह चंचरीकादि शब्द का अर्थ है, इस प्रकार वाच्य वाचक संबंध ज्ञान के भी उपमान के समान प्रत्यभिज्ञानपना नहीं होने से दूसरे प्रमाण को मानना पड़ेगा जिससे आप द्वारा मान्य प्रत्यक्ष, अनुमान , उपमान और आगम के भेद से चार प्रमाण के नियम का व्याघात होगा।अतः प्रत्यभिज्ञान से भिन्न उपमान नहीं है इस प्रकार प्रत्यभिज्ञान के रूप में उपमान को भी प्रमाणता सिद्ध हो जाती है। 1 नैयायिको वदति। - पुंस इति शेषः । 3 वस्तुनः । * प्रत्यक्षनुमानोपमानागमभेदात् । सादृश्याभावेनोपमानेऽप्यंतर्भावाभावात् . प्रसिद्धसाधर्म्यात्साध्यसाधनमुपमानमिति स्वयमेवाभिधानात् । 48

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