Book Title: Pramana Nirnay
Author(s): Vadirajsuri, Surajmukhi Jain
Publisher: Anekant Gyanmandir Shodh Sansthan

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Page 32
________________ पुनः सौगत कहते हैं कि यदि नीलादि संवेदन से बाह्य ही हैं तो उनकी वस्तुसत्ता कैसे है तैमिरिक केशादि के समान ।यदि यह कहते हो तो तैमिरिक केशादि को भी संवेदन से बाह्य होने के कारण अवस्तुत्व नहीं है अपितु बाधकत्व होने के कारण अवस्तुत्व है।प्रसिद्ध नीलवस्त्र आदि में यह बाधकत्व नहीं है।वस्तु के सत् होने पर ही ऐसा मानना. चाहिये। अन्यथा नीलादि बहि रूप के समान संवेदन के भी प्रतिभासमान होने के कारण तैमिरिक केश आदि के समानता होने के कारण अनस्तित्व का प्रसंग आयेगा अतः संवेदन से बाह्य होने के कारण बाधकत्व न होने के कारण वस्तु की सत्ता होने से नीलादि अर्थ ही हैं, ऐसा जानना चाहिये।।17 || यत्पुनरेतन्मतं । यथैव हि ग्राहकाकारः स्वरूपेण'पिरोक्षो न ग्राहकान्तरभावात्। तथा तेन समानकालोऽपि नीलादिक इति ।तत्र भवतो यदि तादृशो नीलादिरप्रतिपत्तिविषयः कथं यथैवेत्यादिवचनं प्रतिपाद्य वत्। प्रतिपत्तिविषयश्चेत्तर्हि कथं स्वरूपेणाऽपरोक्षत्वं, तस्य भवत्प्रतिपत्तिविषयतया परत एव तदुपपत्तेः ।यदप्येतदपरं यथा चक्षुरादिकात् ग्राहकाकारः, तथा तत्समानकालो ग्राह्याकारोपीति तत्राऽपि सभासमवायिनां चक्षुरादेर्बहुत्वात् तज्जन्मनो विकसितकुबलयदलनीलच्छायानुवर्तिनो नर्तकीरूपस्यापि बहुत्वेन भवितव्यम्। न चैवं, तद्रूपैकत्वे सर्वेषां तेषामेकवाक्यताप्रतिपत्तेः |व्यामोहादेव कुतश्चित्तत्र तेषामेकवाक्यत्वं, वस्तुतो नानैव तद्रूपमितिचेत्। कोशपानादेतत्प्रत्येतव्यं न प्रमाणतः । कुतश्चिदपि तदभावात् कुतश्चेदमवगतं ग्राह्याकारोऽपि चक्षुरादेरिति ग्राहकाकारवत्।।18 ।। आपका जो यह मत है कि जैसे ग्राहकाकार स्वरूप से प्रत्यक्ष ज्ञात होता है, उस प्रकार ग्राहकान्तर से नहीं, उसी प्रकार नीलादि भी आचार्य कहते हैं कि यदि आपकी दृष्टि में नीलादि ज्ञान के विषय नहीं है तो फिर यथैव इत्यादि वचन से उसका प्रतिपादन कैसे किया जा सकता है, यदि प्रतिपत्ति के विषय हैं तो फिर वे स्वरूप से प्रत्यक्ष कैसे हैं? उसको आपके ज्ञान का विषय होने के कारण परतः ही ज्ञान होने से जो दूसरे यह कहते हैं कि जैसे चक्षु आदि से ज्ञान में ग्राहकाकार ज्ञात होता है, उसी प्रकार उसी समय ग्राह्याकार भी तो सभा में स्थित पुरूषों के चक्षु आदि के बहुत होने से उससे उत्पन्न होने वाले विकसित कमल पत्र की नील छाया का अनुकरण करने वाले नर्तकी के रूप को भी बहुत्व होना चाहिये, किंतु ऐसा नहीं है, उसके रूप के एकत्व के संबंध में उन सभी पुरूषों के एक रूपता का कथन होने से किसी अज्ञान से ही उनका उसमें एकरूपता का कथन है, वास्तव में नहीं, वास्तव में तो उनका रूप नाना ही है, यदि यह कहो तो कोशपान (मदिरापान) से ही ऐसा जाना जाता है, प्रमाण से नहीं।कहीं भी उसका अभाव होने से और ' ज्ञायत इति शेषः। 2 तव। २ प्रातिपाद्यार्थोऽस्यास्तीति प्रतिपाद्यवत्। त्वज्ज्ञानविषयतया। ज्ञाने ज्ञायते। पुरुषाणामिति शेषः ।

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