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चिकित्साविधेर्गोलके
न च गोलकं चक्षुस्तद्रश्मिप्रसरस्य तत्त्वादिति चेत्, कथं तर्हि चक्षुरर्थस्य' करणमन्यार्थस्यान्यत्र तदनुपपत्तेः । चक्षुरर्थस्य पादे कथमभ्यङ्गस्य करणमिति चेन्न, पादाभ्यक्तस्य स्नेहस्य तन्नाडीरन्ध्रद्वारेण चक्षुरवाप्तस्य तदुपकारित्वात् । न चैवं गोलकाभ्यत्तस्यांजनादेस्तद्वहिर्गतरश्मि प्रसरावाप्तिस्तदनुपलंभात् । न च शक्योपलंभस्यानुपलब्धिरन्तरेणाभावं संभवति, तन्न संप्रयोगस्य संनिकर्षार्थत्वम् | 146 ।।
गोलक चक्षु नहीं है, उसकी किरणों के चक्षु होने से यदि ऐसा कहते हो तो फिर चक्षु के लिए की जानेवाले चिकित्सा में गोलक में क्यों चिकित्सा की जाती है? अन्य के प्रयोजन से की जानेवाली चिकित्सा अन्यन्त्र नहीं की जाती। आँखों के लिए पैर में मालिश क्यों की जाती है ? यह कहना भी ठीक नहीं है। पैर में मालिश किये जानेवाले तेल के उसकी नाड़ी के छिद्रो द्वारा चक्षु में पहुंचने से उसके चक्षु के लिए उपकारी होने से । इस प्रकार गोलक में लगाये जाने वाले अंजन आदि की उसके बाहर रहने वाले किरणों को प्राप्ति नहीं होती है ऐसा उपलब्ध नहीं होने से जहां उपलब्धि संभव है वहां उसका अभाव हुए बिना अनुपलब्धि नहीं होती । अतः इन्द्रिय व्यापार का अर्थ से संबंध नहीं होता । 146 ||
अनुकूलमर्थत्वमिति चेत्, स्यान्मतं । ग्रहणानुकूल्येनावस्थानमेव विषय विषयिणोः संप्रयोग इति तन्न, विषयानुकूल्यग्रहणं प्रत्यनुपयोगात्' । अन्यथा तद्रहितस्य द्विचंद्रादेरग्रहणप्राप्तेः । असतस्तद्रहितस्यापि ग्रहणं न सत इति च विभागपरिकल्पनस्य निर्बन्धनत्वात् तन्न संप्रयोगस्यापि प्रत्यक्षत्वं । । 47 । ।
यदि अनुकूल विषय को इन्द्रियवृत्ति ग्रहण करती है तो माना जा सकता है । ग्रहण करने की योग्यता के कारण ही विषय विषयी का संबंध स्थापित किया जाता है, यह भी ठीक नहीं हैं अनुकूलविषयता का ग्रहण के प्रति कोई उपयोग नहीं होने से । यदि ऐसा नहीं मानोगे तो अनुकूल विषयता से रहित द्विचन्द्रादि का ग्रहण नहीं हो सकेगा । विषयानुकूलता के बिना भी असत् का ग्रहण हो जाता है सत् का नहीं इस प्रकार के विभाग की कल्पना भी निरर्थक ही है । अतः इन्द्रिय व्यापार भी प्रत्यक्ष नहीं है । । 47 ।।
भवतु व्यवसायस्यैव विषयाकारपरिणतिविशेषात्मनो बुद्धिव्यापारस्य प्रत्यक्षत्वं, प्रतिविषयाध्यवसायो दृष्टमितिवचनाद् दृष्टमितिच प्रत्यक्षस्याभिधानादिति चेन्न। विषयाकारपरिणामे बुद्धेर्दर्पणादिवदेव तस्याः प्रामाण्यान्मूर्त्तत्वेना चेतनत्वापत्तेः । अचेतनैव बुद्धिरनित्यत्वात्कलशादिवदिति चेत् । कथमिदानीं दर्पणा दिवदेव तस्याः प्रामाण्यं यतस्तद्वापारविशेषस्य प्रत्यक्षत्वं तस्य तद्विशेषत्वेन
चक्षुर्निमित्तस्य ।
2 अभावं विनेति भावः ।
3 जैनो वदति ।
4 ग्रहणयोग्यतया ।
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अर्थानिमित्तकत्वात् । निःकारणत्वात् ।
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