Book Title: Pramana Nirnay
Author(s): Vadirajsuri, Surajmukhi Jain
Publisher: Anekant Gyanmandir Shodh Sansthan

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Page 51
________________ संयुक्त समवाय सन्निकर्ष होने से, कोई विशेषता नहीं होने से।यदि चक्षु से रसादि का ग्रहण नहीं होता तो अन्तर्मल विश्लेष से होने वाली विशुद्धिविशेष रूपी स्पष्टता को ही प्रत्यक्षत्व सिद्ध होता है उसके होने पर ही विषय के ज्ञान का नियम होने से।सन्निकर्ष प्रत्यक्ष नहीं है विपर्यय होने से अतः इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष प्रत्यक्ष का लक्षण नही है। 44|| यत्पुनर्मीमांसकस्य मतं "इन्द्रियविषयसंप्रयोगादुत्पन्नं ज्ञानं प्रत्यक्षं" इति, तदपि न युक्तम्। संप्रयोगस्य संनिकर्षार्थत्वे नैयायिकवघोषात्। यदि चेन्द्रियसन्निकर्षात्तदवाच्छिन्न एवात्मप्रदेशे ज्ञानं, तर्हि तदपेक्षया पर्वतादेः प्रत्यासन्नत्वात्तत्रकिमपेक्ष्य दूरादिप्रतिपत्तिः। गोलकाधिष्ठानं शरीरमपेक्ष्येति चेन्न, तस्या सन्निकृष्टतया तज्ज्ञा नेनाग्रहणात्। नचागृहीते तस्मिस्ततोऽयमतिदूर इति भवति प्रतीतिः। अन्तरेणापि संनिकर्ष तस्य ग्रहणे पर्वतादेरपि स्यादिति न युक्तं तत्र तत्कल्पनं गोलकाधिष्ठान एवात्मप्रदेशे ततस्तज्ज्ञानमिति चेत्कथमिन्द्रियाग्रवर्तिनस्तस्मात्तन्मूलगते तत्र विषय ज्ञानमिन्द्रियान्तरेष्वेवमदर्शनात् । तत्रादृष्टस्यापि चक्षुषिकल्पनायां वरमप्राप्यकारित्वमेव कल्पितमप्राप्यकारिण एव गोलकस्य प्रतीतेः। 4511 मीमांसक का यह कथन कि इन्द्रियों का अर्थ में व्यापार होता हैउससे उत्पन्न ज्ञान प्रत्यक्ष है, यह भी ठीक नहीं है।इन्द्रियव्यापार का अर्थ के साथ सन्निकर्ष मानने पर भी सन्निकर्ष के समान ही दोष होने से यदि इन्द्रिय का सन्निकर्ष होने से उससे भिन्न आत्मप्रदेश में ही ज्ञान होता है तो आत्मा के सर्वव्यापी होने के कारण उसकी अपेक्षा पर्वत आदि के निकट होने से किस अपेक्षा से पर्वतादि के दूरादि का ज्ञान होता है।गोलक से युक्त शरीर की अपेक्षा से यह नहीं कह सकते, उसके सन्निकृष्ट नहीं होने के कारण सन्निकर्ष ज्ञान से उसका ग्रहण नहीं होने से उसके ग्रहण नहीं होने पर भी उससे यह बहुत दूर है, ऐसी प्रतीति नहीं होती।सन्निकर्ष के बिना भी विषय का ग्रहण होने पर पर्वतादि का भी ग्रहण हो जायगा, अतः वहां सन्निकर्ष की कल्पना करना ठीक नहीं है।गोलक में स्थित आत्मप्रदेश में ही इन्द्रिय व्यापार से विषय का ज्ञान होता है, यदि यह कहो तो इन्द्रिय के अग्रभाग में रहने वाले गोलक से उसके अंदर रहनेवाले आत्मप्रदेश में विषय का ज्ञान कैसे होगा?दूसरी इन्द्रियों में ऐसा नहीं देखा जाता।दूसरी इन्द्रियों में ऐसा न देखे जाने पर भी चक्षु में उसकी कल्पना करने की अपेक्षा उसको अप्राप्यकारित्व की कल्पना ही ठीक है, गोलक के अप्राप्यकारी होने की ही प्रतीति होने से।।45 ।। ' इन्द्रियाणामर्थे व्यापारः, तत्प्रगुणतयाऽवस्थानं, कार्याऽवसेया शक्तिसिंप्रयोगः । आत्मनः सर्वगतत्वात्। 'संनिकर्षाभावेन। * सन्निकर्षज्ञानेन। 5 विनेत्यर्थः । ' विषयज्ञानं। ' अर्थज्ञानं। " अनुपलब्धेः। ' अनुपलब्धस्यापि विषयज्ञानस्य ।

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