Book Title: Pramana Nirnay
Author(s): Vadirajsuri, Surajmukhi Jain
Publisher: Anekant Gyanmandir Shodh Sansthan

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Page 49
________________ कालात्यापदिष्टता का प्रसंग आता है।यदि यह कहो कि गोलक मात्र चक्षु नहीं है, चक्षु के रश्मि समूह को चक्षु होने से, अनुमान भी है "रश्मिपरीतं चक्षुस्तैजसत्वात्प्रदीपवत्" तैजसत्व के लिए भी अनुमान है- तैजसं चक्षुः रूपादीनां मध्ये रूपस्यैव प्रकाशकत्वात्तद्वत् इस अनुमान से ज्ञात होने से ।तो यह बताओ कि चक्षु क्या है? जिसमें तैजसत्व को सिद्ध करना; है- गोलक तो है नहीं गोलक के रूप प्रकाशकत्व की असिद्धि होने से, रश्मि की कल्पना को भी विफल होने का प्रसंग होने से।रश्मि से यक्त चक्ष चक्ष है यह कहना भी है, उसके अभी तक सिद्ध नहीं होने से रूपादीनां मध्ये इत्यादि हेतु को आश्रयासिद्ध का दोष होने से।यह हेत व्यभिचारी भी है।स्वच्छ जल से चक्ष के जल के अन्तर्गत रूप मात्र का प्रकाशक होने पर भी तैजसत्व का अभाव होने से तैजसत्व के कारण चक्षु को रश्मिवत्व नहीं सिद्ध होता। 142|| अरश्मिवता' कुतो न तेन व्यवहितस्यापि ग्रहणमप्राप्तेरविशेषात्? रश्मिवतापि कुतो न स्वसन्निकृष्टस्यांजनादेरंजनशलाकादेः प्रदीपादिनैव ग्रहणं प्राप्तेर भेदात्तथा स्वाभाव्यात्, इति समानमन्यत्रापि समाधानम् ।ततो गोलकमेव केवलं चक्षुर्नच तस्य विषयसंनिकर्ष ।इति सिद्धम् विनापि तेन तद्विषयस्य साक्षात्करणं। तथा सुखादेरपि। तद्वदेनमपि संनिकर्षजमेव वेदनत्वात घटादिवेदनवत्। सन्निकर्षोऽपि तत्र संयुक्तसमवायो मनः संयुक्ते आत्मनि सुखादेः समवायादिति चेन्न। दृष्टान्तस्य साध्यवैकल्यात्तत्र सन्निकर्षाभावस्य निरूपितत्वात् ।।43।। बौद्ध कहते है अरश्मिवान चक्षु के द्वारा आवृत वस्तु का भी ग्रहण क्यों नहीं होता अप्राप्ति के समान रूप से होने से आचार्य कहते हैं कि यदि रश्मियुक्त चक्षु है तो वह अपने से सन्निकृष्ट अंजन तथा अंजनशलाका आदि को क्यों नहीं जानता प्रदीपादि के समान दोनों में प्राप्ति का कोई भेद नहीं होने से।यदि यह कहो कि उसका ऐसा ही स्वभाव होने के कारण तो यह समाधान तो अन्यत्र भी समान रूप से ही है ।अतः गोलक ही चक्षु है और उसका विषय के साथ सन्निकर्ष नहीं होता ।अतः सिद्ध है कि इन्द्रिय का विषय के साथ सन्निकर्ष हुए बिना भी विषय का साक्षात्कार होता है।इसी प्रकार सुखादि का भी।विपक्षी कहते हैं कि सुखादि का वेदन भी सन्निकर्ष से ही होता है।वेदन होने के कारण घटादि के समान।सुखादि के वेदन में संयुक्त समवाय सन्निकर्ष है मन आत्मा से संयुक्त है और आत्म में सुखादि का समवाय है, आचार्य कहते हैं- यह कहना उचित नहीं है “घटादिवत्" यह दृष्टांत साध्यविकल है, घटादि के वेदन में सन्निकर्ष के अभाव का निरूपण किया जाने से।।43।। अपि च यदि तद्वेदनादनर्थान्तरं सखादिर्न तर्हि तेन मनसः संनिकर्षः ततः पूर्व तस्यैवाभावात्। वेदनसमये भावेऽपि व्यर्थस्तत्संनिकर्षस्तस्य ' यौगो वदति। ' सिद्धान्ती प्राह। 'प्रदीपाग्रकज्जलरेखादेः। * यथा घटादौ प्राप्तिस्तथाऽजनादावपीति प्राप्त्यभेदः । 26

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