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अतः जल आदि में ही जल आदि का ज्ञान प्रमाण है, उसका अभ्यास दशा में स्वतः ही ज्ञान होता है, अनभ्यास दशा में कमल की गंध तथा जल आदि के लाने आदि के अनुमान से।इस प्रकार अनुमान से जानने वाले सम्यक्त्व को अन्य अनुमान से जानने वाले सम्यक्त्व को अन्य अनुमान से जानने पर अनवस्था नहीं होती कहीं दूर जाकर किसी अभ्यस्त विषय का ज्ञान होने से।अतः भली प्रकार जानने के कारण ज्ञानों में सम्यक्ज्ञान को ही प्रमाणता है।यह सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण है, सम्यग्ज्ञान के बिना प्रमाणता की उत्पत्ति नहीं होने से।।33 ।।
देवस्य मतमुवीक्ष्य विचारज्ञानिनां प्रभोः । मयाऽभ्यधायि संक्षिप्य प्रमाणस्येह लक्षणम्।।1।।
प्रभु देव के मत का विचार कर ज्ञानियों के लिए यहां संक्षेप में प्रमाण का लक्षण
कहा है।
इति श्रीमद्वादिराजसूरिप्रणीते प्रमाणनिर्णये प्रमाणलक्षणनिर्णयः ।।
इस प्रकार श्री वादिराजसूरि द्वारा प्रणीत प्रमाण निर्णय ग्रन्थ में प्रमाण के लक्षण का निर्णय किया गया है।
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प्रत्यक्षनिर्णयः। प्रत्यक्षनिर्णय
तच्च प्रमाणं द्विविधं, प्रत्यक्षं परोक्षं चेति ।तत्र यत्स्पष्टावभासं तत्प्रत्यक्षम् किं पुनरिदं स्पाष्ट्यं नाम'? विशेषावबोध इति चेन्न, सामस्त्येन संसारिज्ञाने चिदपि तदभावात्, असामस्त्येन तद्भावस्य परोक्षे प्रत्ययेऽ भिधानस्य मानत्वात् आलोकपरिकलितग्रहणं तदिति चेन्न, अव्याप्तेः, रूपज्ञान एव तस्य भावात्, न स्पर्शादिज्ञानेषु। न चैतेषामप्रत्यक्षत्वमेव, तत्प्रत्यक्षत्वस्य निर्विवादत्वात्। अव्यवहितग्रहणं तदित्यपि न मन्तव्यं, निर्मलस्फटिकव्यवहितेऽपि वस्तुनि स्पष्टस्यैव तदानस्यावलोकनात् ।वृक्षोऽयं शिंशपात्वादित्यादेरनुमानस्यापि 'प्रत्यक्षत्वप्रसक्तिरव्यवहितग्रहणात्, तस्मादन्तर्मलविश्लेषनिबन्धनो विशुद्धिविशेष एव स्पाष्ट्यमित्युपपन्नम् ।।34 ।।
' विमतं ज्ञानं प्रत्यक्षं भवितुमर्हति विशेषवबोधकत्वात्। 2 भागासिद्ध इति भावः । ३ परोक्षप्रमाणनिर्णयप्रस्तावे वक्ष्यमाणत्वा दिति निर्गलितोऽर्थः । * अनैकांतिकदोषो भवेदिति भावः। - प्रतिपक्षमनुवृत्तरूपं सामान्यं परोक्षव्यावृत्तरूपं तदेव विशेषः ।
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