Book Title: Pramana Nirnay
Author(s): Vadirajsuri, Surajmukhi Jain
Publisher: Anekant Gyanmandir Shodh Sansthan

View full book text
Previous | Next

Page 44
________________ स्मर्त्तव्यं, तदभिलापस्यापि तथाविधस्यैव तत्स्मरणेनेत्यनवस्थितिप्रसंगात् स्मरणस्य तदनभिसंबद्धवस्तुवेदित्वेपि व्यवसायस्वभावत्वे प्रत्यक्षस्यापि तत्किं न स्यात्?अभिलापसंबन्धवैकल्ये कुतस्तस्यसव्यवसाय इति चेत्, अभिलापस्मरणस्यापि कुतः ? शब्दसामान्स्य तत्संबधयोग्यस्य तेन ग्रहणादिति चेत्, प्रत्यक्षेऽपि तत' एव सोऽस्तु तेनाऽपिसामान्यस्य वस्तुषु सदृशपरिणामस्य परिच्छेदात् । अन्यथा शुक्तिकादौ रजताद्यपेक्षया साधर्म्यदर्शनस्याभावात् कथं तन्निबन्धनस्तत्र रूप्याद्यारोपः । यत इदं सूक्तं भवेत्, “शुक्तौ वा रजताकारो रूप्यसाधर्म्यदर्शनादिति”। न च साधर्म्यादपरं सामान्यमपि तस्य नित्यव्यापिस्वभावस्य क्वचिदप्यप्रतिवेदनात्। तद्विषयत्वेऽपि परामर्शवैकल्यादव्यवसायमेव प्रत्यक्षमिति चेन्न । नीलमिदं पतिमिदं इति तत्र परामर्शस्य प्रतिपत्तेः । प्रत्यक्षादन्य एव सः परामर्श इति चेन्न' स्पष्टत्वेन प्रतिभासनात्, स्पाष्ट्यमपि तत्र प्रत्यक्षप्रत्यासत्तेरध्यारोपितमेव न वास्तवमिति चेत्, प्रत्यक्षस्य चैतन्यमप्यर्थान्तरचेतनसंसर्गादध्यारोपितमेव न वास्तवमिति किं न स्यात् ? यतः सांख्य' मतस्यानभ्युपगमः प्रत्यक्षादिज्ञानव्यतिरेकेण चेतनस्याप्रतिपत्तेरिति चेत् । न । परामर्शव्यतिरेकेण प्रत्यक्षस्याप्रतीतेः । ।36 || बौद्ध कहते हैं कि सम्यग्ज्ञान के व्यवसायात्मक होने पर प्रत्यक्ष को भी जो सम्यग्ज्ञान का ही भेद है, व्यवसायात्मक ही होना चाहिये किंतु वह व्यवसायात्मक नहीं है, उसके द्वारा अभिलाप संबद्ध अभिधेय का प्रतिपादन करने संबंधी अपने विषय को ग्रहण नहीं करने से | अभिलाप बद्ध स्वविषय को ग्रहण करना ही व्यवसाय है । आचार्य कहते हैं कि अभिलाप संबद्ध स्वविषय को ग्रहण करने को ही व्यवसाय मानने पर व्यवसाय के ही अभाव का प्रसंग आ जायगा । अभिलाप का उसी के अन्तर्गत होनेवाले विषय से संबंध है, वहां व्यवसाय का अभाव है । स्मरण के द्वारा संकेतकाल की प्राप्ति वहां व्यवसायत्मकता हो जायगी, यह कहना भी ठीक नहीं है स्मरण के निर्विकल्प होने पर अभिलाप के विषय को स्वलक्षण के रूप में ग्रहण नहीं किये जाने से । व्यवसाय रूप होने पर उसके द्वारा भी अभिलाप संबद्ध ही स्वविषय को स्मरण किया जाना चाहिये उस अभिलाप को भी उसी प्रकार के स्मरण के द्वारा इस प्रकार अनवस्था का प्रसंग आयेगा । स्मरण को अभिलाप से असंबद्ध वस्तु को जानने पर भी व्यवसाय स्वभाव वाला मानने पर प्रत्यक्ष को भी व्यवसाय रूपता क्यों नहीं हो जायेगी ? अभिलाप संबंध होने पर उसका व्यवसाय किससे जाना जायगा तो अभिलाप स्मरण का भी किससे जाना जायेगा | अभिलाप स्मरण के द्वारा शब्द सामान्य से संबद्ध योग्य विषय को ग्रहण करने से जाना जायगा तो प्रत्यक्ष में भी वस्तुसंबद्ध सामान्य को ग्रहण करने से ही जाना जायगा, प्रत्यक्ष के द्वारा भी वस्तुओं में सदृश रूप सामान्य कां ज्ञान होने से । यदि सदृश परिणाम को असामान्य कहते हो तो शुक्तिका आदि में रजतादि की अपेक्षा साधर्म्यदर्शन का अभाव होने से साधर्म्य के कारण शुक्तिका में रजत का आरोप कैसे हो सकता है? जिससे कि यह कहा जाता है " शुक्तौ वा रजतकारो रूप्य 1 2 वस्तुसंबद्धसामान्यग्रहणादेव ।सदृशपरिणामस्यासामान्यत्वे । कल्पनः इति शेषः । 3 जैनः | चेतनसंसर्गाच्चेतना बुद्धिरित्यस्य । 4 21

Loading...

Page Navigation
1 ... 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140