Book Title: Pramana Nirnay
Author(s): Vadirajsuri, Surajmukhi Jain
Publisher: Anekant Gyanmandir Shodh Sansthan

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Page 38
________________ आत्मविषयत्व सिद्ध होता है । यदि द्वितीय ज्ञान को आत्मविषयत्व मानते हो तो द्वितीय ज्ञान के विषय प्रथम ज्ञान ने ही क्या अपराध किया है, जिससे उसी को आत्मविषयत्व नहीं मानते । अतः इससे भी वेद्यत्व हेतु का व्यभिचारित्व सिद्ध होता है, अनात्मविषयत्व के अभाव में भी वेद्यत्व हेतु के होने से । । 27 ।। 1 नानुमानादप्यनात्मविषयत्वमर्थज्ञानस्यात्मविषयत्वं तु तस्यानुभवप्रसिद्धमतः किं तत्रानुमानेन, यदि निर्बन्धस्तदुच्यत एव । अर्थज्ञानमात्मविषयमर्थविषयत्वात्, यत्पुनर्नात्मविषयं तदर्थविषयमपि न भवति यथा घटादि । अर्थविषयं विवादापन्नं ज्ञानं तस्मादात्मविषयमिति केवलव्यतिरेकी हेतु:, तस्य परैरपि गमकत्वाभ्यनुज्ञानात् ।तन्नार्थविषत्वमेव ज्ञानस्येत्युपपन्नं नैयायिकस्य, स्वविषयत्वस्यापि तत्र भावात् । ।28।। अनुमान से भी अर्थज्ञान को आत्मविषयत्व की सिद्धि नहीं होती, उसका आत्मविषयत्व तो अनुभवप्रसिद्ध है, अतः उसमें अनुमान की क्या आवश्यकता है? यदि आवश्यक ही है तो वह भी कहा जाता है-अर्थज्ञान आत्मविषय वाला है अर्थविषय वाला होने से जो आत्मविषय वाला नहीं है, वह अर्थविषय वाला भी नहीं है जैसे घटादि । अर्थज्ञान अर्थविषय वाला है, अतः वह आत्मविषय वाला भी है, यह केवल व्यतिरेकी हेतु है जो विपक्ष के द्वारा भी स्वीकार किया गया है। अतः नैयायिक का यह कथन कि ज्ञान का विषय केवल अर्थ है, उचित नहीं है, ज्ञान में स्वविषयत्व के भी होने से । । 28 ।। मीमांसकस्त्वाह ।परोक्षमेव सकलमपि ज्ञानं स्वप्रकाशवैकल्यात्, प्रत्यक्षं तु बहिरर्थस्य तेन तस्यैव प्रकाशनात् इति । 129 । । मीमांसक कहते हैं- सभी ज्ञान परोक्ष ही हैं अपने को प्रकाशित नहीं करने के कारण | प्रत्यक्ष तो उससे उस बाह्य अर्थ का प्रकाश करने के कारण है। 129 || 'तत्र प्रकाशकत्वे सति कुतस्ततोऽर्थस्यैव प्रकाशो न स्वरूपस्य ? ±शक्तिवैकल्यात्। तथाहि यद्यत्राशक्तं न तत्तस्यप्रकाशकं यथा चक्षु रसादेरशक्तं च सकलमपि संवेदनं स्वप्रकाशे इति तद्वैकल्यमिति चेत् । अस्यानुमानस्यापि यदि तद्वैकल्यं, अनुमानान्तरात्तस्यापि तदन्तरात्तद्वैकल्यं प्रतिपत्तव्यमिति कथमनवस्थितिर्नभवेत्?अभि'रूच्यभावात् यावदभिरूचिस्तावदेव भवत्यनुमानस्य प्रबंधस्तदभावे त्ववस्थितिरेवेति चेन्न', तर्हि 'कुतश्चिदपि सकलस्य संवेदनस्य प्रकाशवैकल्यप्रतिपत्तिरिति - कथं तत्र परोक्षत्ववचनं? ततः सकलस्यापि संवेदनस्य 1 जैनः पृच्छति । 2 मीमांसको वदति । 3 ज्ञानं न स्वप्रकाशकं तत्र तस्याशक्तत्वात् । 4 5 6 आकांक्षाभावात् । जैन आह । अनुमानात् । 15

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