Book Title: Pramana Nirnay
Author(s): Vadirajsuri, Surajmukhi Jain
Publisher: Anekant Gyanmandir Shodh Sansthan

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Page 39
________________ स्वप्रकाशवैकल्यमनुमाना दवजिगमिषता स्वप्रकाशकमेव तदभ्युपगन्तव्यम् तद्वदर्थज्ञानमपि तस्याप्यनुमानवंदन्तोरूपतया परिस्फुटस्यावलोकनात् ।तच्छक्तेरपि तत एवाध्यवसायात्। सत्यपि परोक्षत्वे कुतस्तस्य प्रतिपत्तिः अन्यथा तदभ्यनुज्ञानानुपपत्तेः ।।30 || जैनाचार्य कहते हैं-ज्ञान में प्रकाशत्व होने पर उससे अर्थ का ही प्रकाश होता है स्वरूप का नहीं यह कैसे है?यदि यह कहते हो कि शक्ति न होने के कारण।क्योंकि जो जहां शक्त नहीं है, वह उसको प्रकाशित नहीं करता जैसे चक्षु इन्द्रिय रसादि का |सभी ज्ञान स्व को प्रकाशित करने में अशक्त हैं, यह भी शक्ति वैकल्य है यदि ऐसा. कहते हो तो इस अनुमान का शक्ति वैकल्य दूसरे अनुमान से और उसका भी दूसरे अनुमान से शक्ति वैकल्य जानना चाहिये।ऐसा होने पर अनवस्था कैसे नहीं होगी?आकांक्षा के नहीं होने से अनवस्था नहीं होगी।जब तक आकांक्षा होगी तब तक ही अनुमान की योजना होगी, आकांक्षा के न होने पर अवस्थिति ही होगी। यदि यह कहते हो तो किसी अनुमान से सभी ज्ञान के प्रकाश रहितता की प्रतिपत्ति नहीं होगी फिर सभी ज्ञान को परोक्ष कैसे कहा जा सकता है?अतः अनुमान से सभी ज्ञान को स्वप्रकाश रहित जानने के इच्छुक को उसे स्वप्रकाशक ही मानना चाहिये।उसी प्रकार अर्थज्ञान को भी स्वप्रकाश मानना चाहिए।उसको भी अनुमान के समान अन्तर्मुख रूप से स्वयं को स्पष्ट रूप से जानने के कारण उसकी शक्ति का भी उसी से निश्चय होने के कारण |यदि परोक्ष मान भी लें तो उसकी प्रतिपत्ति कैसे होगी? प्रतिपत्ति न होने पर उसको स्वीकार न किये जाने का प्रसंग होने से।।3011 अर्थप्रकाशादेव' तस्य तदन्यथानुपपन्नतया निर्णयादिति चेन्न तत्प्रकाशस्य ज्ञानधर्मत्वे ज्ञानवत्परोक्षस्यैव भावात्, तत्र च तदन्यथानुपत्तेर्निर्णयः परिज्ञात एव तदुपपत्तेः ।परिज्ञात एवायं स्वत इति चेत्, न तर्हि परोक्षत्वं ज्ञानस्य। तद्धर्मस्यार्थप्रकाशस्य स्वप्रकाशत्वे तदव्यतिरेकिणो ज्ञानस्यापि तदुपपत्तेः । अन्यतस्तस्य परिज्ञानमिति चेत् किं पुनरत्र तदन्यत् प्रत्यक्षमिति चेन्न तस्येन्द्रियसंप्रयोगादुत्पत्तेः ज्ञानधर्मे चार्थप्रकाशे तदभावात् कथं तत्र प्रत्यक्षत्वं सत्यपि तस्मिस्तत्प्रकाशवत्तद्धर्मिणो ज्ञानस्यापि तत एव प्रतिपत्तेर्व्यथमनुमानं भवेत् तन्न ज्ञानधर्मस्तत्प्रकाशः भवत्वर्थस्यैव सधर्म इति चेत्, न, तस्यापि स्वतः प्रतिपत्तिरर्थस्याचेतनत्वेन तदनुपपत्तेः ।चेतनत्वे तु विज्ञानस्यैवावस्थितेः ।न बहिरर्थो 'ज्ञातुमिच्छता मीमांसकेन। 2 अंतर्मुखरूपतया। 3 तत्प्रतिपत्तिरिति शेषः । * जैन आह। 5 निश्चिते वस्तुनि। 6 स्वतः परतो वा इति शंकायां स्वत इति चेत् । 1 जैन आह। ७ प्रवर्तत इति शेषः। 9 प्रत्यक्षे। 10 अर्थप्रकाशधर्मिणः । 11 मयि ज्ञानमस्ति अर्थप्रकाशाद्यन्यथानुपपत्तेः । । 16

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