Book Title: Pramana Nirnay
Author(s): Vadirajsuri, Surajmukhi Jain
Publisher: Anekant Gyanmandir Shodh Sansthan

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Page 37
________________ वेद्यं तत्तत्सर्वमनात्मविषयमिति किंचिद्वि'ज्ञानमुत्पद्यमानमात्मविषयमपि भवितुमर्हति। अन्यथा तद्वद्यत्वस्यानात्मविषयतया व्याप्तेस्तत एवाप्रतिपत्तिप्रसंगात, तथा च व्यभिचारि वेद्यत्वं व्याप्तिज्ञानेन तत्रात्मनि विषयत्वस्यभावेऽपि तस्य भावात्। एवमीश्वरज्ञानेनापि। न हि तस्याप्यनात्मविषयत्वं, असर्वविषयत्वप्रसंगात् ।।26 || यदि यह कहो कि अर्थज्ञान को वेद्यत्व विशिष्ट नहीं माना है उसके अन्य ज्ञान का वेद्यत्व होने के कारण अविशिष्ट वेद्यत्व को ही अनात्मविषय साध्य का हेतु होने से तो यह बताओ कि वह अनात्मविषय साध्य का हेतु कैसे है?यदि यह कहो कि उसी वेद्यत्व हेतु से, कलशादि में उसकी व्याप्ति देखी जाने से तो यह कहना ठीक नही है व्यप्ति ज्ञान में आत्मविषयत्व के साथ भी साध्य की वेद्यत्व हेतु के साथ व्याप्ति देखी जाने से व्यप्ति कहीं हो कहीं नहीं ऐसा नहीं होता ।साध्य की प्रतिपत्ति के निमित्त तत्पुत्रत्व आदि में भी व्याप्ति होने से श्यामत्व आदि साध्य की तत्पुत्रत्वात् हेतु से भी सिद्धि का प्रसंग होने से। व्याप्ति संपूर्ण रूप से ही होती है।संपूर्ण रूप से व्याप्ति होने पर "यत् यत् वेद्यं तत्तत्सर्वमनात्मविषयम्” इस प्रकार की व्याप्ति ज्ञान आत्मविषय के पक्ष में भी हो सकती है अन्यथा वेद्यत्व की अनात्मविषयत्व के साथ व्याप्ति होने से उससे ही अप्रतिपत्ति का प्रसंग आयेगा ।व्याप्ति ज्ञान के आत्मविषयत्व होने पर वेद्यत्व हेतु व्याभिचारी हो जाता है व्याप्ति ज्ञान से अपने को विषय करने का अभाव होने पर भी वेद्यत्व हेतु के होने से।ईश्वर ज्ञान के साथ भी वेद्यत्व हेतु व्यभिचारी है क्योंकि वह अनात्मविषय नहीं है अन्यथा वह सभी विषय को जानने वाला नहीं हो सकता।।26 || तथा च कथं तस्य तज्ज्ञानेन सर्वज्ञत्वं?तेन तदपरस्य सकलस्य तस्य च तदन्येन ग्रहणादिति चेत्, कथं तदन्येनाप्यस्वविषयेण स्वविषयतया परस्परपरिज्ञानमित्यप्रतिपत्तिरेव। तेन तस्यासकलप्रतिपत्तेरनभ्युपगमादित्यतोऽस्ति तस्याऽऽत्मविषयत्वं । तथा चेत्किमपराद्धं तद्विषयेण ज्ञानेन 'यत्तस्यैवात्मविषयत्वं नेष्यते इति सिद्धम् तेनापि व्यभिचारित्वं वेद्यत्वस्य ।तत्रानात्मविषयत्वाभावेऽपि तस्य भावादिति ।।27।। अर्थज्ञान के स्वविषयत्व नहीं होने पर द्वितीय ज्ञान के द्वारा सर्वज्ञत्व कैसे हो सकता है।प्रथम ज्ञान के द्वारा अन्य सकल वस्तु का और प्रथम ज्ञान का अन्य ज्ञान से ग्रहण होने से यदि यह कहो तो फिर उस अन्य ज्ञान को भी स्व को विषय न करने वाला होने से स्वविषय रूप से परस्पर ज्ञान कैसे होगा?अतः स्व ज्ञान की अप्रतिपत्ति ही होगी।सर्वज्ञ के ज्ञान के द्वारा असकल प्रतिपत्ति नहीं मानी गई है, अतः ज्ञान का 1 व्याप्तिज्ञानं। 2 व्याप्तिज्ञानस्यात्मविषयत्वेन। ३ द्वितीयज्ञानेनेत्यर्थः । वस्तुनः। 5 द्वितीयज्ञानस्यात्मविषयत्वेन । द्वितीयज्ञानविषयेण। ' यस्मात् हेतोः। 14

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