Book Title: Pramana Nirnay
Author(s): Vadirajsuri, Surajmukhi Jain
Publisher: Anekant Gyanmandir Shodh Sansthan

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Page 35
________________ तदभावापत्तेश्च। न हि सामान्यादिषु सामान्यं द्रव्यादित्रय एव तदभ्युपगमात्सामान्यादिषु तदभावापत्तेश्चः,न हि सामान्यादिषु सामान्यं द्रव्यादि त्रय एव तदभ्युपगमात्सामान्यदिषु तदभावापत्तेश्च। अस्ति च तत्रापि वेद्यत्वं, अन्यथा व्योमकुसुमादिवत्तदभावापत्तेः अतो न तत्सामान्यं। भवतु साधर्म्यमेव तद्वेदनविषयत्वस्य वेद्यत्वस्य चाभिधानात्। तस्य सर्वेपदार्थसाधारणतया द्रव्यगुणकर्मस्विव सामान्यविशेषसमवायेष्वप्यविरोधात्। न तदभावापत्तिरिति चेत् किं पुनस्तद्वेदनं यद्विषयत्वं वेद्यत्वमर्थज्ञानस्योच्येत, तदेवार्थज्ञानमिति चेन्न ।अनात्मविषयत्वे तस्य तद्वेदनत्वानुपपत्तेः, आत्मविषयत्वे च हेतुप्रतिज्ञयो विरोधात् । तस्मादन्यदेव तदेकार्थ समवेतमनन्तरं तवेदनमिति चेन्न, तस्याद्याप्य - सिद्धत्वात् ।।22 || फिर जो यह अनुमान है-"नात्मविषयमर्थ ज्ञानं वेद्यत्वात्कलशादिवत् अर्थ को जानने वाला ज्ञान अपने को नहीं जानता, वेद्य होने के कारण कलशादि के समान यहां वेद्यत्व सामान्य नहीं है क्योंकि वेद्यत्व सामान्य तो नित्यरूप से सदा पदार्थों में ही रहता है, सामान्यादि में उसका अभाव होने से सामान्यादि में सामान्य नहीं होता है, वह द्रव्य, गुण, कर्म इन तीनों में ही माना गया है, सामान्यादि में उसका अभाव होने से।वेद्यत्व अर्थ ज्ञान में भी है अन्यथा आकाश कुसुम के समान उसके अभाव का प्रसंग आयेगा अतः वेद्यत्व सामान्य नहीं है विपक्षी कहते हैं वेदनविषयत्व और वेद्यत्व में साधर्म्य मान लो, सभी पदार्थों में साधारण होने के कारण द्रव्यगुण कर्म के समान सामान्य विशेष समवाय में भी विरोध न होने से उसके अभाव की आपत्ति नहीं है, यह कहते हो तो यह बताओ कि वह ज्ञान क्या है?जिसका विषय वेद्यत्व अर्थज्ञान को कहा जाय, वही अर्थज्ञान है, यह नहीं कह सकते, उसके आत्म विषय न होने के कारण उसके द्वारा उसका वेदन नहीं हो सकता ।आत्मविषय होने पर तुम्हारे हेतु और प्रतिज्ञा में विरोध होता है।अर्थ ज्ञान से भिन्न ही उसके साथ एक ही अर्थ में समवेत होकर बाद में उसका वेदन करता है, यह भी नहीं कह सकते, उसकी अभी तक सिद्धि नहीं होने से।।22 || __अर्थज्ञानं ज्ञानान्तरवेद्यं वेद्यत्वात् कलशादिवदित्यत एवानुमानात्तत्सिद्धिरिति चेन्न, परस्पराश्रयापत्तेः, तत्सिद्धावनुमानमनुमानाच्च तत्सिद्धिरिति ।। 23 ।। प्रथम अर्थज्ञान दूसरे ज्ञान के द्वारा जाना जाता है, वेद्य होने के कारण कलशादि के समान, इस अनुमान से ही उसके अनात्मविषयत्व की सिद्धि हो जाती है यह कहना भी उचित नहीं है, अन्योन्याश्रय होने के कारण प्रथम ज्ञान के अनात्मविषय सिद्ध होने पर अनुमान की सिद्धि हो सकती है और उक्त अनुमान के सिद्ध होने पर उसके अनात्म विषयत्व की सिद्धि हो सकती है। 23 ।। 1 विरुद्धत्वादिति भावः । 2 अर्थज्ञानात्। तेन सहैकस्मिन्नर्थे समवेतं । * पश्चादुत्पन्न। ___ 12 .

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