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यह कैसे ज्ञात हुआ कि चक्षु आदि से ग्राहकाकार के समान ग्राह्याकार भी ज्ञात होता है? ||18||
तत्रापि तदन्वयव्यतिरेकानुविधानस्य भावादिति चेत्, कुतः पुनस्तगावस्यावगतिः?न प्रत्यक्षात्, "न हि प्रत्यक्षसंवित्तिरन्वयव्यतिरेकयोरिति" स्वयमेवाभिधानात् ।नाप्यनुमानात्प्रत्यक्षाभार्च तत्पूर्वकत्वेन तस्याप्यसंभवात्। तद्वासनामात्रजन्मनो विकल्पात्तदवगतौ वा अवास्तव एव तद्भाव इति न ततो नीलादेरपरोक्षतया चक्षुरादेरूत्पादः शक्यव्यवस्थापनः ।ततो नीलादिव्यतिरिक्तवेदन -विषयतयैवापरोक्षभावमनुभवन्नर्थ एवेत्युपपन्नं तद्विषयतया सम्यग्ज्ञानस्यार्थविषयत्वम्।।19 ।।
- वहां भी उसके अन्वय और व्यतिरेक का विधान होने से यदि यह कहो तो अन्वय व्यतिरेक के होने का ज्ञान कैसे हुआ? प्रत्यक्ष से तो नहीं हो सकता, क्योंकि अन्वय व्यतिरेक का ज्ञान प्रत्यक्ष से नहीं होता ऐसा तम स्वयं मानते हो।अनमान से भी नहीं हो सकता, प्रत्यक्ष के अभाव में प्रत्यक्ष पूर्वक होने वाले अनुमान के भी असंभव होने से उसकी वासना मात्र से उत्पन्न होने वाले विकल्प से उसका ज्ञान मानने पर वह अवास्तविक ही होगा ।अतः नीलादि को प्रत्यक्ष रूप से चक्षु आदि की उत्पत्ति नहीं माना जा सकता।अतः नीलादि भिन्न ज्ञान के विषय के रूप में प्रत्यक्ष रूप से अनुभव किया जाता हुआ अर्थ ही हैं ।अतः ज्ञान का विषय होने के कारण सम्यग्ज्ञान का विषय अर्थ है, यह सिद्ध होता है।।19 ||
भवतु तद्विषयत्वमेव तस्य न स्वविषयत्वं स्वात्मनि क्रियाविरोधात छिदिकियावत् तथाहि विरूद्धा ज्ञानस्य स्वात्मनि प्रमितिः कियात्वात् खङ्गात्मनि छिदिक्रियावत्, न हि खड्गः स्वात्मानं छिन्दन्नुपलभ्यत इति चेत्, न कियात्वमात्राच्छिदेः खङ्गात्मना विरोधोऽपि तु तदात्मनो भावरूपत्वात्, छिदेश्च प्रध्वंसविशेषत्वेन अभावस्वभावत्वात् ।भावाभावयोश्च परस्परपरिहारोपपत्तेः । न चैवं ज्ञानात्मतत्पमित्यो वेतरस्वरूपत्वं येन तयोरन्योन्यपरिहारेणावस्थानाद्विरोध परिकल्पनमतो न विरोधादस्वप्रतिपत्तिकत्वं ज्ञानस्य शक्यव्यवस्थां कथं चास्व - प्रमिति रूपत्वे तस्य नियत एवार्थो गोचरो न सर्वोऽपीति, नियतस्यैव तस्य प्रतिभासनादिति चेत्कुत इदमवगन्तव्यम् ।।20 ||
नैयायिक कहते हैं-ज्ञान का विषय अर्थ है तो हो किंतु स्वविषयत्व नहीं है, अर्थात् ज्ञान स्वयं को नहीं जान सकता, स्वयं में किया का विरोध होने से छिदिक्रिया के समान। कहा भी है- ज्ञान की अपने में प्रमिति विरूद्ध है, किया होने के कारण जैसे कि तलवार की स्वयं में छिदि किया नहीं होती।तलवार अपने को काटता हुआ कहीं दिखाई नहीं देता। आचार्य कहते है-यह कहना ठीक नहीं है, किया मात्र होने के कारण छिदि किया का तलवार को काटने में विरोध नहीं है, अपितु तलवार के भावरूप होने से और छिदि किया
1 नैयायिको वदति। 2 स्वस्मिन्निति शेषः।