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कल्पना करा देता है, यह कहना भी ठीक नहीं है । विकल्पान्तर के भी असत होने के कारण उससे विकल्प में प्रतिभास पना की कल्पना नहीं की जा सकती । पुनः दूसरे विकल्पान्तर से प्रथम विकल्पान्तर को उस प्रकार मानने पर अनवस्था होने के कारण नील और उसके वेदन के विवेक का विकल्प ही नहीं होगा। किंतु ऐसा नहीं है, नील और उसके वेदन की प्रतीति होने से । अतः यह कहना तर्क संगत नहीं है कि ग्राह्य ग्राहक के समान विकल्प उत्पन्न होता है किंतु वह भी ग्राह्य, ग्राहक रूप से रहित ही है, दूसरे विकल्प से उसमें ग्राह्य ग्राहक की व्यवस्था की जाती हैं ।।14।।
ततो न केशादेरपि तद्वेदनस्यानर्थान्तरत्वं यततन्निदर्शनेन नीलादेरपि तद्वेदनस्य तत्त्व' मवकल्प्येत । ततो बहिरेव तद्वेदनान्नीलादिबहिरर्थः तत
इदमप्यनुपपन्नम् ।
अतः केशादि उसके ज्ञान से अभिन्न नहीं है, जिससे उसको दिखाकर नीलादि को भी उसके ज्ञान से अभिन्न की कल्पना की जाय । अतः नीलादि बहिरर्थ उसके ज्ञान से पृथक् ही हैं । अतः यह कहना भी उपयुक्त नहीं है।
संवेदन होने के कारण संवेदन से अर्थ को बाहयत्व नहीं सिद्ध होता | संवेदन से बाहर होने पर तो अर्थ की ही सिद्धि नहीं होती ।।15।।
इति संवेदनेनैव नीलादेस्तद्बहिर्भावस्योक्त'या नीत्या व्यवस्थापनात् । ।16 ।। इस प्रकार संवेदन से ही नीलादि की संवेदन से बाह्य होने की उक्त नीति से व्यवस्था होने से ||16||
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2 संवेदनेन बाह्यत्वं मतोऽर्थस्य न सिद्ध्यति । संवेदनाद्बहिर्भावे स एव तु न सिद्ध्यति ||15 | |
यदि संवेदनाद्द्बहिरेव नीलादिः कथं तस्य वस्तुसत्त्वं ? तैमिरिककेशादिवदिति चेत्, तत्केशादेपि न संवेदनबहिर्भावेनावस्तुसत्त्वमपि तु बाधकत्वात् ।न चेदं प्रसिद्धे नीलवस्त्रादावस्तीति । वस्तु सन्नेवाऽयं कर्तव्यश्चवैमभ्युपगमः । अन्यथा नीलादेर्बहिरूपत्वेनेव संवेदनस्यापि प्रतिभासमानत्वेन तैमिरिककेशादिना साधर्म्यादवस्तुसत्त्वापत्तेः । अतः अतः संवेदनबहिर्भावादबाधकत्वेन वस्तुसत्त्वाच्चार्थ एवनीलादिरवगन्तव्यः । ।17 ।।
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अन्यच ।
हेतुना ।
3 न्यायात् ।
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तैमिरिककेशादिवत् । 5 परमार्थसत्।
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