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उस संवेदन (ज्ञान) का अपना स्वरूप और अर्थ दो प्रकार के विषय हैं।दोनों में ही उस ज्ञान से ही प्रमिति होने से ज्ञानाद्वैतवादी सौगत कहते हैं-प्रमिति से भिन्न अर्थ क्या है? जिसकी संवेदन से प्रमिति होती है।आचार्य कहते हैं ज्ञान से पथक रहने वाले नीलादि ही अर्थ हैं ।सौगत कहते हैं-यदि वह प्रकाशित नहीं करता तो उसका अस्तित्व कैसे है यदि आकाश कुसुम के समान प्रकाशित करता है तो वह संवेदन से पृथक् नहीं है, उस प्रकाश को ही संवेदनत्व रूप से प्रसिद्ध संवेदन में भी प्रतिपत्ति होने से ।यदि यह कहो कि संवेदन तो प्रकाश रूप ही है नीलादि कभी अप्रकाश रूप भी होते हैं अतः प्रकाश से बहिर्भाव होने के कारण अर्थत्व है तो अप्रकाशावस्था में यदि उसकी प्रतिपत्ति नहीं होती तो उसका अस्तित्व कैसे है? अतिप्रसंग होने से ।यदि प्रतिपत्ति होती है तो प्रकाश से रहितपना नहीं होगा, प्रकाशवान होने से ही प्रतिपत्ति होने के करण ।अतः प्रकाश से रहित होने के कारण नीलादि अर्थ नहीं हैं।फिर संवेदन से पृथक् उसकी प्रतिपत्ति कैसे होती हैं? ||10||
स्वत एव तदुपपत्तेरिति चेत् ।सत्यमस्ति प्रकाशो नीलादेः स यदि स्वत एव भवति तस्य बोधरूपत्वं ।न चैवं, परत एव तद्भावात् ।ततोऽपि भवतस्तस्य बोधत्वमेव रूपमिति चेन्न, बोध्यत्वस्यैव 'तद्रूपत्वात् ।।11।।
यदि स्वतः ही उसको प्रतिपत्ति होने से कहते हो तो ठीक है नीलादि का प्रकाश यदि स्वतः ही होता है तब तो वह ज्ञानरूप ही हो जाता है।आचार्य कहते हैं कि स्वतः प्रकाश नहीं होता परतः ही उसका प्रकाश होने से।सौगत कहते हैं परतः प्रकाश होने पर भी वह बोधरूप ही है।आचार्य कहते हैं, यह कहना ठीक नहीं है परतः प्रकाशरूप ज्ञेय ही हो सकता है।।11।।
किं पुनरिदं बोध्यत्वमर्थस्य, किं पुनर्ज्ञानस्यापि बोधकत्वं? परनिरपेक्षमपरोक्षत्वमिति चेत ।अर्थस्यापि परापेक्षं तदेव बोध्यत्वं किं न स्यात।' परस्यैवार्थप्रतीतिवेलायामप्रतिवेदनादिति चेन्न ।नीलं वेद्मि पीतं वेद्मीति नीलादेरन्यस्यैव तद्वेदनस्यैवानुभवनात् ।।12 ||
अर्थ का बोध्यत्व क्या है? ज्ञान का बोधकत्व क्या है? पर की अपेक्षा न होने के कारण ज्ञान प्रत्यक्ष है, यदि ऐसा कहते हो तो पर की अपेक्षा होने के कारण अर्थ ही बोध्य क्यों नहीं हो जायगा ।अर्थ प्रतीति के समय अर्थ से भिन्न पर का ही वेदन न होने से वह बोध्य नहीं है, यह कहना भी ठीक नहीं है, नील को जानता हूँ, पीत को जानता हूँ, इस प्रकार नीलादि से भिन्न उसके ज्ञान का ही अनुभव होने से।।12।।
अनन्यत्वे हि नीलमित्येव वेद्मीत्येव वा स्यानोभयमस्ति चोभयं ततोऽनुभवप्रसिद्धत्वान्नीलादेस्तत्संवेदनान्यत्वस्य कथमप्रतीतिविकल्प एवायं कश्चिन्नीलं वेद्मीति नानुभवो न च ततः क्वचिदन्यत्वनिश्चयो
' परतो भवत्प्रकाशरूपत्वात्। 2 अर्थादिन्नस्यैव। 'जैनो वक्ति।