Book Title: Pramana Nirnay
Author(s): Vadirajsuri, Surajmukhi Jain
Publisher: Anekant Gyanmandir Shodh Sansthan

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Page 16
________________ वे कहते हैं कि आपके स्वर्ग से पृथ्वी पर आने से छ: माह पूर्व ही देवों द्वारा स्वर्णवृष्टि करके इस पृथ्वीतल को सुवर्णमय बना दिया गया था तो जब आप ध्यानरूपी द्वार से मेरे अन्तःकरण में प्रविष्ट हो चुके हैं तो मेरा शरीर भी स्वर्णमय हो जाय तो क्या आश्चर्य है? प्रागेवेह त्रिदिवभवनादेष्यता भव्यपुण्यात् पृथ्वीचकं कनकमयतां देवनिन्येत्वयेदम्। ध्यानद्वारं मम रूचिकरं स्वान्तगेहं प्रविष्टः तत्किं चित्रं जिन वपुरिदं यत्सुवर्णीकरोषि। कहा जाता है कि इस स्तोत्र के प्रारंभ करते ही कवि का कुष्ठरोग कम होने लगा था और उक्त श्लोक को पढ़ते ही समस्त कुष्ठरोग दूर हो गया और शरीर स्वर्ण की तरह चमकने लगा। न्यायविनिश्चय विवरण अकलंकदेव ने न्यायविनिश्चय नामक तर्क ग्रन्थ लिखा है। आचार्य वादिराज ने इस तर्क ग्रन्थ पर अपना विवरण लिखा है, जो बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इन्होंने पक्षों को समृद्ध बनाने के लिए अगणित ग्रन्थों के प्रमाण उद्धृत किये हैं। इन्होंने अपनी इस टीका का नाम न्यायविनिश्चयविवरण रखा है। प्रणिपत्य स्थिरभक्तया गुरून् परानप्युदारबुद्धिगुणान् न्यायविनिश्चय विवरण मभिरमणीयं मया कियते।' वादिराज द्वारा लिखित भाष्य का प्रमाण बीस हजार श्लोक प्रमाण है।इन्होंने मूल वार्तिक पर अपना भाष्य लिखा है। न्यायविनिश्चय विवरण की रचना मौलिक शैली में हुई है।प्रत्येक विषय को आत्मसात् करके ही व्यवस्थित ढंग से युक्तियों द्वारा अपने कथन को प्रमाणित किया है जितना पर पक्ष समीक्षण का भाग है,वह उन-उन मतों के प्राचीनतम ग्रन्थों से लेकर ही पूर्वपक्ष के रूप में उपस्थित किया है। स्वपक्ष संस्थापना में समन्तभद्रादि आचार्यों के प्रमाणवाक्यों से पक्ष का समर्थन परिपुष्ट रूप में किया गया है।कारिकाओं की व्याख्या में वादिराज का व्याकरण ज्ञान भी प्रस्फुटित हुआ है। कई कारिकाओं के उन्होंने पांच-पांच अर्थ तक दिये हैं,दो अर्थ तो अनेक कारिकाओं के दृष्टिगोचर होते हैं। समस्त विवरण में दो ढाई हजार पद्य उनके द्वारा रचे गये हैं,इनकी तर्कणा शक्ति अत्यंत प्रखर और मौलिक है। इन्होंने न्यायविनिश्चय के प्रत्यक्ष, अनुमान और प्रवचन तीनों परिच्छेदों पर विवरण की रचना की है।अकलंकदेव ने जिन मूल विषयों की उत्थापना की है,उनका विस्तृत भाष्य इस विवरण में हुआ है।तर्क और 'एकीभावस्तोत्र, वादिराजसूरि-४ न्यायविनिश्चयविवरण, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, प्रस्तावना, पृ.३५ . 15

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