Book Title: Pramana Nirnay
Author(s): Vadirajsuri, Surajmukhi Jain
Publisher: Anekant Gyanmandir Shodh Sansthan

View full book text
Previous | Next

Page 25
________________ विरोधिनो हि कुतश्चित्कस्यचिद् व्यवच्छित्तिः, प्रकाशादिवान्धकारस्य। नह्यचेतन स्याप्यव्युत्पत्त्यादिनाकश्चिदपि विरोधो यतस्ततोऽपि तद्व्यवच्छित्तिः परिकल्प्येत, सम्यग्ज्ञानात्तु तद्व्यवच्छित्तिरुपपन्नैव तस्य व्यवसायात्मकत्वात्। व्यवसायस्य चाऽव्युत्पत्त्यादिना विरोधप्रसिद्धः। न हि व्यवसितमेव किञिचदव्युत्पन्न'मारेकितं विपर्यस्तं वा भवति ।तदभाव एव तद्भावस्योपपत्तेः । अतः सम्यग्ज्ञानस्यैव तत्र करणत्वम् अचेतनस्य त्विन्द्रियलिड्गादेस्तत्र करणत्वं गवाक्षादेरिवोपचारादेव। उपचारश्च तद्व्यवच्छित्तौ सम्यग्ज्ञानस्येन्द्रियादिसहायतया प्रवृत्तेः। तन्नाऽचेतनस्य तत्र करणत्वं मुख्यवृत्त्या सम्भवति,नाऽप्यसम्यग्ज्ञानस्य ||2|| नैयायिक कहते हैं कि प्रमिति क्रिया में अचेतन इन्द्रिय तथा अनुमान आदि भी करण हैं, चक्षु से जाना जाता है, धुएं से जाना जाता है इस प्रकार इन्द्रिय तथा अनुमान आदि में भी प्रमिति किया के करण होने की प्रसिद्धि होने से जैनाचार्य कहते हैं अनध्यवसाय आदि (संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय) का निवारण ही प्रमिति है, संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय का निवारण होने पर ही चेतन या अचेतन कोई भी प्रमिति किया का करण हो सकता है।अचेतन करण नहीं हो सकता क्योंकि वह संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय का विरोधी नहीं है।किसी विरोधी के द्वारा ही किसी का विनाश या अभाव हो सकता है, जैसे प्रकाश से अंधकार का, क्योंकि प्रकाश अंधकार का विरोधी है।अचेतन का संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय से कोई विरोध नहीं है, जिससे अचेतन से भी उनके विनाश की कल्पना की जा सके।सम्यग्ज्ञान से संशयादि का विनाश होता ही है, क्योंकि सम्यग्ज्ञान निश्चयात्मक होता है।व्यवसाय (निश्चय) का अनध्यवसाय आदि से विरोध प्रसिद्ध ही है। कोई भी निश्चय संशय, विपर्यय या अनध्यवसाय रूप नहीं होता है, संशयादि के अभाव में ही निश्चय की उत्पत्ति होने के कारण। अतः सम्यग्ज्ञान ही प्रमितिक्रिया का करण है।अचेतन इन्द्रिय अनुमान आदि प्रमिति किया के प्रति खिड़की आदि के समान उपचार से ही करण हैं।सम्यग्ज्ञान इन्द्रिय आदि की सहायता से संशय आदि को दूर करता है, यही उपचार है। अतः प्रमिति क्रिया का करण मुख्यरूप से न तो इन्द्रिय, लिंग आदि हैं न मिथ्या ज्ञान।।2।। न हि तद्व्यापारपरामृष्टस्याऽव्युपत्त्यादिविकलतया भावस्य प्रमितत्वमुपपन्नं, तदसम्यक्त्वस्यैव तथासत्यभावापत्तेः। अव्युत्यत्त्यादिप्रत्यनीकस्य स्वभावस्यैव सम्यगर्थत्वात्। तस्य वा सम्यग्ज्ञानेऽपि भावे वाच निकमेव तस्यासम्यज्ञानत्वं भवेन्न वास्तवम् ।ततः सम्यग्ज्ञानादेव व्यवसायात्मनस्तद्व्य -वच्छित्तिः।।3।। - प्रमिति किया से परामृष्ट पदार्थ ही अव्युत्पत्ति आदि से रहित होने के कारण प्रमाण हैं ऐसा भी नहीं है, ऐसा होने पर असम्यक्त्व (मिथ्यात्व) का ही अभाव हो जाएगा। 'अनध्यवसितम्। 2 शक्ङितम्। पदार्थस्य। वाङमात्रमेव। सत्यं।

Loading...

Page Navigation
1 ... 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140