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क्योंकि सम्यक्त्व तो अव्युत्पत्ति आदि से विपरीत स्वभाव वाला ही होता है।मिथ्यात्व को भी अनध्यवसाय आदि से विपरीत स्वभाव वाला होने पर वह कथन मात्र के लिए ही मिथ्याज्ञान होगा, वास्तव में नहीं।अतः निश्चयात्मक सम्यग्ज्ञान से हो अनध्यवसाय आदि का निराकरण होता है।।3।।
यद्येषा न व्यवसायरूपा' न प्रमाणस्य सम्यग्ज्ञानात्मनः फलं भवेत्, व्यवसायरूपत्वे सत्येव तदुपपत्तेः ।अत एवोक्तं "प्रमाणस्य साक्षात्फलसिद्धिः स्वार्थविनिश्चय' इति ।।4।।
यदि प्रमिति व्यवसाय रूप न हो तो सम्यग्ज्ञान रूपी प्रमाण का फल (हान विनाश तथा हानोपादान, उपेक्षा बुद्धि रूपी) भी न हो।प्रमिति क्रिया के व्यवसाय रूप होने पर ही उक्त फल की उत्पत्ति होने के कारण इसलिए कहा है कि प्रमाण की साक्षात् फलसिद्धि अपना और अर्थ का निश्चय है।।4।।
व्यवसायरूपा चेत्तर्हि व्यवसायात्तद्व्यवच्छित्तिरिति तद्व्यवच्छित्तेरेव तद्व्यवच्छित्तिरित्युक्तं भवति, तच्चानुपपन्नमेव ।भेदाऽभावे कियाकारकभावस्यानुप -पत्तेरिति चेन्न भेदस्याऽपि भावात् ।।5।।
शंकाकार कहते हैं कि यदि प्रमिति को व्यवसायारूपा कहते हो तो व्यवसाय से अव्युत्पत्ति आदि का विनाश और अव्युत्पत्ति आदि का विनाश होने पर अव्यवसाय का विनाश मानना पड़ेगा, किंतु ऐसा नहीं होता।भेद के अभाव में क्रिया कारक भाव की उत्पत्ति नहीं होने से ।आचार्य कहते हैं, यह कहना ठीक नहीं है भेद के भी होने से। 15 ।।
द्विरूपं हि व्यवसायस्वभावसंवेदनं, प्रवृत्तिरूपं निवृत्तिरूपं चेति। नहीदमव्युत्पत्त्यादि निवृत्तिरूपमेव, नीरूपत्वापत्तेः। नाऽपि प्रवृत्तिरूपमेव, स्वरूपादिनेवाऽव्युत्पत्त्यादिरूपेणाऽपि तद्रूपत्वापत्तेः। न चैवमेकान्ततो निवृत्तिरूपतया प्रवृत्तिरूपतया च तस्याऽप्रवेदनात् । अत एवोभयस्वभावे तस्मिन् प्रवृत्तिरूपतया साधकतमस्याव्युत्पत्त्यादिनिवृत्तिरूपतया किया भावस्य भावान्न कियाकारकभावस्याऽनुपपत्तिः ।।6।।
शंकाकार पुनः कहते हैं-आत्मसंवेदनरूप व्यवसाय दो प्रकार का हो सकता है प्रवृत्ति रूप और निवृत्ति रूप।वह अनध्यवसाय आदि की निवृत्ति रूप नहीं हो सकता, निवृत्ति
' "तीर्ति" शिष्टांशः। - अज्ञाननिवृतिर्हानोपादानोपेक्षाबुद्धयः फलं। 3 जैनेनेति शेषः 4 ज्ञप्तिः । 5 आत्म। ' तथास्त्विति चेत्।
अनिश्चयात्।