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अनन्तवां भाग सर्वावधि का विषय है । सर्वावधि का अनन्तवां भाग विपुलमति मनःपर्यय ज्ञान का विषय है। मन:पर्यय ज्ञान संयमी मनुष्यों के ही होता है ।
केवलज्ञान सम्पूर्ण घातियाकर्मों का क्षय होने पर उत्पन्न होता है। यह तीन लोक और तीन काल के समस्त पदार्थों और उनकी पर्यायों को एक साथ जानता है। अन्य ज्ञान अपने-अपने आवरण तथा वीर्यान्तराय का क्षयोपशम होने पर होते हैं किन्तु केवलज्ञान ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय कर्म के पूर्णतः क्षय होने पर ही प्रादुर्भूत होता हैं। इसी प्रसंग में सर्वज्ञत्व की सिद्धि करने के साथ साथ बुद्ध, हरिहर ब्रम्हा आदि देवताओं के सर्वज्ञत्व को निरसन करते हुए भगवान अहंत को सर्वज्ञ सिद्ध किया है। उनका ज्ञान ही पूर्णरूप से विशद (स्पष्ट) है। 2
परोक्ष निर्णय
परोक्ष निर्णय प्रकरण में परोक्ष निर्णय के दो भेद किये हैं- अनुमान और आगम । अनुमान के भी मुख्य और गौण दो भेद किये हैं। स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और तर्क को गौण अनुमान माना गया है तभा साधन से साध्य के ज्ञान को मुख्य अनुमान कहा गया है। तर्क प्रमाण के ज्ञान को मुख्य अनुमान कहा गया है। तर्क प्रमाण की प्रमाणता सिद्ध करते हुए आचार्य कहते हैं कि व्याप्ति ज्ञान को तर्क कहते हैं तथा साध्य एवं साधन के अविनाभाव को व्याप्ति । अविनाभाव एक नियम है । साध्य के होने पर ही साधन का होना तथा साध्य के न होने पर साधन का न होना अविनाभाव है । व्याप्ति का ज्ञान तर्क प्रमाण के अतिरिक्त अन्य किसी प्रमाण से संभव नहीं है, अतः तर्क को पृथक् प्रमाण मानना आवश्यक है। तर्क का अनुमान में अन्तर्भाव नहीं किया गया जा सकता। इसी प्रकार प्रत्यक्ष से अवग्रहीत पदार्थ का कालान्तर में स्मरण स्मृति प्रमाण तथा स एवायं अथवा तत्सदृशः एवायं इस प्रकार का स्मरण और प्रत्यक्ष का जोड़ रूप ज्ञान प्रत्यभिज्ञान है, जिनकी प्रमाणता भी युक्ति पूर्वक सिद्ध की गयी है ।
. चार्वाक केवल प्रत्यक्ष प्रमाण को मानते हैं, आचार्य ने उनके लिये अनुमान प्रमाण की अनिवार्यता सिद्ध की है। वे कहते हैं कि अनुमान के अभाव में न तो किसी की बुद्धि का ज्ञान हो सकता है, न इष्ट को सिद्ध और पर के इष्ट में दोषोद्भावन । भूत चतुष्टय की सिद्धि भी अनुमान प्रमाण के बिना नहीं हो सकती है। मानना ही पड़ेगा।
अतः चार्वाक को भी अनुमान प्रमाण
अभाव प्रमाण के पृथक् प्रमाणत्व का निराकरण करते हुए उसका अन्तर्भाव प्रत्यक्ष प्रमाण में किया गया है। हेतु के त्रैरूप्य और पंचरूप्य का निरसन करते हुए अविनाभाव को ही हेतु सिद्ध किया है।
1 प्रमाण निर्णय वादिराजसूरी पृष्ठ २८
2. वही प्रष्ठ 32
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