Book Title: Pramana Nirnay
Author(s): Vadirajsuri, Surajmukhi Jain
Publisher: Anekant Gyanmandir Shodh Sansthan

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Page 21
________________ अनेकान्त और परिणाम कथन पदार्थ का एक साथ अनेकरूपत्व अनेकांत है और परिणाम क्रम से गुणपर्ययवद् द्रव्यं इत्यादि आगम तथा प्रत्यक्ष से भी उसकी प्रतिपत्ति होती है । अनेकान्तात्मक वस्तु का करने के लिये स्यादस्त्येवानेकान्तात्मा, स्यान्नास्त्येवानेकान्तात्मा, स्यादस्तिनास्त्येवानेकान्तात्मा, स्यादवक्तव्यैव, स्यादस्त्यवक्तव्यैव, स्यान्नास्त्यक्तव्यैव स्यादस्तिनास्त्यवक्तव्यैव इन सात भंगों का आश्रय लिया जाता है। नय विवक्षा से ही . अनेकान्तात्मक वस्तु का कथन संभव है, अन्यथा नहीं । मोक्षमार्ग मोक्ष का मार्ग सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र तीनों है । न केवल सम्यक्दर्शन से मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है, न केवल सम्यक्ज्ञान से और न केवल सम्यक् चारित्र से अपितु तीनों की पूर्णता होने पर ही मोक्ष संभव है। मोक्ष में जीव की स्थिति के संबंध में बौद्धों के - दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपैति नैवावनिं गच्छति नान्तरीक्षं स्नेहक्षयात्केवलमेति शान्ति' के द्वारा जीव की सर्वशून्यता वेदांतियों के ब्रहृवेदे ब्रम्हैव भवति के द्वारा ब्रह्म से ऐक्य प्राप्त करने वैशेषिकों के द्वारा बुद्धि आदि सभी विशेष गुणों का उच्छेद होने तथा सांख्यों के द्वारा चिन्मयत्व आदि का निराकरण कर उसके स्वरूप का निम्न प्रकार निरूपण किया है। तस्मान्निर्मूलनिर्मुक्त कर्मबन्धोऽतिनिर्मलः । व्यावृत्तानुगताकारोऽनन्तमानंददृग्वलः । निःशेषद्रव्यपर्याय साक्षात्करण भूषणः । जीवो मुक्तिपदं प्राप्तः प्रपत्तव्यो मनीषिभिः । अर्थात् मोक्ष में जीव कर्मबन्ध से सर्वथा मुक्त होकर अत्यन्त निर्मल, कर्मों से रहित, ज्ञानादि गुणों से युक्त अनन्त आनन्द, अनन्त दर्शन, और अनन्त वीर्यवाला, अखिल द्रव्य की अखिल पर्यायों को जानने वाला हो जाता है । विषय मोक्षमार्ग के विषय जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्व हैं। इनका निर्णय होने पर ही किसी की मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति हो सकती है। जीव का निर्णय नहीं होने पर उसकी मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति का प्रश्न ही नहीं उठता, अजीव को जाने बिना भी जीव-अजीव के सम्बंध को न जानने से उसके वियोग की इच्छा नहीं हो सकती । इसी प्रकार आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा तथा मोक्ष को जाने बिना भी आस्रव तथा बंध के कारणों को दूर करने तथा संवर और निर्जरा के द्वारा अनागत कर्मों को रोकने और आगत कर्मों के क्षय करने में प्रवृत्ति नहीं हो सकती। 20

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