Book Title: Pramana Nirnay
Author(s): Vadirajsuri, Surajmukhi Jain
Publisher: Anekant Gyanmandir Shodh Sansthan

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Page 12
________________ रचनाएं वादिराजसूरि की अब तक प्राप्त रचनाओं में पार्श्वनाथचरित, यशोधरचरित, न्यायविनिश्चयविवरण, एकीभावस्तोत्र तथा प्रमाणनिर्णय ग्रन्थ हैं । पार्श्वनाथ चरित महाकाव्य की दृष्टि से वादिराजसूरि का पार्श्वनाथचरित श्रेष्ठ काव्य है । इसमें १२ सर्ग हैं। पार्श्वनाथ के प्रसिद्ध कथानक को ही कवि ने अपनाया है । यह कथावस्तु उत्तरपुराण में निबद्ध है । संस्कृत भाषा में काव्य रूप में पार्श्वनाथ चरित को सर्वप्रथम लिखने का श्रेय वादिराज को ही है । संक्षेप में कथावस्तु निम्न प्रकार है पोदनपुर में अरविंद नाम का महाप्रतापी राजा रहता था । राजा दानी, कृपालु और यशस्वी था। इनका मंत्री विश्वभूति विलक्षण गुणों से युक्त था । विश्वभूति को संसार शरीर और भोगों से वैराग्य उत्पन्न हो गया और उन्होंने राजा से आज्ञा प्राप्त कर दीक्षा ग्रहण कर ली । विश्वभूति के प्रव्रज्या ग्रहण कर लेने पर राजा ने विश्वभूति के छोटे पुत्र मरुभूति को मंत्री नियुक्त कर दिया । विश्वभूति के बड़े पुत्र का नाम कमठ था । एक बार मरुभूति को राजा के साथ युद्ध पर जाना पड़ा । मरुभूति के युद्ध पर जाने पर कमठ मंत्री पद पर प्रतिष्ठित हुआ । मंत्री पद प्राप्त करने के उपरान्त कमठ ने अपने लघु भ्राता मरुभूति की पत्नी वसुन्धरा के अनुपम सौन्दर्य पर मुग्ध होकर वसुन्धरा द्वारा वचने का अथक प्रयास करने पर भी उसे भ्रष्ट कर दिया। युद्ध से वापिस आने पर जब राजा को कमठ के दुराचार का पता चला तो राजा ने उसे नगर से निर्वासित कर दिया । कमठ तापसियों के आश्रम में रहने लगा । मरुभूति को अपने ज्येष्ठ भ्राता कमठ से • बहुत प्यार था । राजा द्वारा रोके जाने पर भी भ्रातृवात्सल्य के कारण वह रूक नहीं सका और कमठ को वापिस लाने के लिये उसके पास पहुँच गया। उसे आता देख कमठ ने उसके ऊपर पर्वत की एक बहुत बड़ी चट्टान गिरा दी, जिससे उसका प्राणान्त हो गया । कमठ का मरूभूति के प्रति कई भवों तक एकाकी बैर चलता रहा, किंतु मरूभूति का जीव उससे कभी बैर विरोध नहीं रखता, वह सदैव उसकी भलाई करता रहता है। मरुभूति के जीव ने वज्रघोष हाथी, महाशुक स्वर्ग का देव, विद्युतदेव और विद्युन्माला का पुत्र रश्मिवेग, अच्युत स्वर्ग का देव, वज्रनाभ चक्रवर्ती आदि भवों को धारण कर अन्त में वाराणसी नगरी के राजा विश्वसेन की पत्नी ब्रह्मदत्ता के गर्भ से तीर्थंकर का जन्म धारण किया, देवों द्वारा जन्मोत्सव मनाया गया और बालक का नामकरण पार्श्वनाथ किया गया । युवा होने पर एक दिन एक अनुचर से उन्हें ज्ञात हुआ कि एक साधु वन में पंचाग्नि तप कर रहा है, अवधिज्ञान से पार्श्वनाथ को ज्ञात हुआ कि कमठ का जीव ही अनेक पर्यायों में भ्रमण करता हुआ मनुष्य पर्याय प्राप्त कर कुतप कर रहा है। वे उस 2. उत्तरपुराण, भारतीय ज्ञानपीठ - काशी, ७३ पर्व, पृ. ४२६-४४२ 11

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