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वादिराज की गुरु परम्परा मठाधीशों की थी, जिनमें दान लिया और दिया जाता था। ये स्वयं जिनमंदिरों का निर्माण कराते, जीर्णोद्धार कराते एवं अन्य मुनियों के लिये आहारदान की व्यवस्था करते थे। शक सं. ११२२ में उत्कीर्ण ४६५ संख्यक अभिलेख में बताया गया है कि षट्दर्शन के अध्येता श्रीपाल देव के स्वर्गवासी होने पर उनके शिष्य वादिराज ने परवादिमल्ल नाम का जिनालय बनवाया था और उसके पूजन एवं मुनियों के आहारदान हेतु भूमिदान दिया था ।
वादिराज सूरि के विषय में कहा जाता है कि इन्हें कुष्ठ रोग हो गया था। एक बार राजसभा में इसकी चर्चा हुई तो इनके एक अनन्य भक्त ने गुरू के अपवाद के भय से झूठ ही कह दिया कि उन्हें कोई रोग नहीं है, इस पर वाद विवाद हुआ । अन्त में राजा ने स्वयं ही परीक्षा करने का निश्चय किया । भक्त घबराया हुआ वादिराज के पास पहुंचा और उन्हें समस्त घटना कह सुनायी। गुरू ने भक्त को आश्वासन देते हुए कहा-धर्म के प्रभाव से सब ठीक होगा, चिन्ता न करो । तभी वादिराज सूरि ने एकीभाव स्तोत्र की रचना की और इनका कुष्ठरोग दूर हो गया।
स्थितिकाल
वादिराज ने अपने ग्रन्थों की प्रशस्तियों में रचनाकाल का निर्देश किया है। ये प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र के रचयिता प्रभाचन्द्र के समकालीन और अकलंकदेव के ग्रन्थों के व्याख्याता हैं । कहा जाता है कि चालुक्य नरेश जयसिंह की राजसभा में इनका बड़ा सम्मान था एवं ये प्रख्यात वादी माने जाते थे । जयसिंह (प्रथम) दक्षिण के सोलंकी वंश के प्रसिद्ध महाराजा थे। इनके राज्य काल के कितने ही दानपत्र तथा अभिलेख प्राप्त हुए हैं, जिनमें सबसे पहला अभिलेख शक संवत् ६३८ ( ई. सन् १०१६ ) का है और सबसे अन्तिम शक संवत् ६६४ (ई. सन् १०४२) का है । अतः इनका राज्यकाल सन् १०१६ से १०४२ ई. तक है ।
वादिराज ने अपना पार्श्वनाथ चरित जयसिंह देव की राजधानी में रहते हुए शक् सं. ६४७ (ई. सन् १०२५) कार्तिक शुक्ल तृतीया को पूर्ण किया था।'
यशोधरचरित के तृतीय सर्ग के अन्तिम पद्य और चतुर्थ सर्ग के उपान्त्य पद्य में कवि ने महाराज जयसिंह देव का उल्लेख किया है, जिससे विदित होता है कि यशोधरचरित की रचना भी कवि ने जयसिंह देव के समय में ही की है।
वादिराजसूरि जगदेकमल्ल द्वारा सम्मानित हुए थे, जिनका समय अनुमानतः सन् १०१० से १०३२ के मध्य का है । अतः वादिराज सूरि का समय १०१० ई.सन् से १०६५ ई० सन् तक का होना चाहिये ।
1. शाकाब्दे नगवार्धिरन्घ्रगणने संवत्सरे क्रोधने । मासे कार्तिक नाम्नि बुद्धि महिते शुद्धे तृतीया दिने । सिंहे पाति जयादिके वसुमतीं जैनी कथेयं मया । निष्पति गमिता सती भवतु वः कल्याणनिष्पत्तये । पा. च. प्र. ५ पद्य
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