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विंशतिषु त्या लोपलू ॥ ४८ ॥
विंशति प्रकार के शब्दोंमें 'ति' अवयवके साथ बिंदुका लोप होता है । (सूत्र के लोपल में ) श इत् होनेसे, पूर्व स्वर दीर्घ होता है । ( तथा श्लोपल में ) ल इत् होनेके कारण, ( यहाँका कार्य ) नित्य हो जाता है । उदा.- वीसा विंशतिः । तीसा त्रिंशत् । तेवीसा त्रयोविंशतिः । तेत्तीसा त्रयत्रिंशत् । दाढा दंष्ट्रा । सीहो सिंहः । ( सिंह शब्द के ) सिंह तथा सिंघ ऐसेभी रूप दिखाई देते हैं । संज्ञाओंमें ( सिंह शब्द होनेपर ) सिंहदन्तो । सिंहराओ ॥ ४८ ॥
त्रिविक्रम - प्राकृत व्याकरण
स्नमदामशिरोनभो नरि ॥ ४९ ॥
स्नंयानी सकारान्त और नकारान्त शब्द; ऐसे शब्दों के रूप नरि अर्थात् पुल्लिंग में प्रयुक्त करें। (सूत्रमें ) ' अदामशिरोनभः ' का यह अभिप्राय हैदामन्, शिरस्, और नभस् शब्दाको छोडकर । उदा . - सान्त (सकारान्त ) - जसो यशः । तमो तमः । उरो उरः । तेओ तेजः । पओ पयः । नान्त ( नकारान्त ) - जम्मो जन्म । कम्मो कर्म । वम्मो वर्म । (सूत्र) दामनू, शिरस् और नभस् शब्दको छोडकर, ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण ये शब्द नपुंसकलिंग मेंही प्रयुक्त किये जाते हैं ।) उदा. -दामं । सिरं । णहं । और (सदस्, इत्यादि शब्दोंके बारेमें } सदस् सं । वयस् वअं । सुमनस् सुमणं । शर्म सम्मं । ( इत्यादि रूप ) दिखाई देते हैं, वे बहुलके अधिकारसे होते हैं ॥ ४९॥
शरत्प्रावृट् ॥ ५० ॥
(इस सूत्र ११४९ से) नरि पदकी अनुवृत्ति है । शरत् और प्रावृष् शब्द पुल्लिंग में प्रयुक्त करें । उदा. सरओ । पाउसो ॥ ५० ॥
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