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'पउमचरित' और 'रामचरितमानस
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लिए यह जरूरी नहीं है कि वह घटनाकाम्य हो ही । 'घटना' महाकाव्यकी कसौटी नहीं, उसके लिए महत्तत्त्वका ममावेश और उदार दृष्टिकोणकी आवश्यकता है। यदि 'मानस' 'परिउ' और 'पद्मावत' में महतत्व मोर व्यापक उदारता है, तो वे चरितकाव्य होकर भी महाकाव्य है इसके लिए उन्हें घटनाकाव्य सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं | क्योंकि परितकाव्य मी महाकाश्य हो मकते हैं। इसमें सन्नेह नहीं कि अपभ्रंश चरितकाव्यों का विकास संस्कृत पुरण काव्यों से हुआ। यह बात मंस्कृतम रविषेणके 'पन चरित' और 'स्त्रयम्भ' के 'पउमचरिउ' के तुलनात्मक अध्ययनसे स्वतः स्पष्ट हो जाती है । इधर अपभ्रंशके कुछ युबातृक अध्येता अपभ्रंश कान्यके दो भेद करने के पक्ष में हैं-12) चरितवाच्य और ( २) कथाकाव्य । परन्तु अपभ्रंश व्यके स्वरूप और शिल्पको देखते हा रडू विभाजन ठीक महों । एक ही कवि अपने वाव्यको चरिस भी कहता है और कथाकाव्य भो। यह कहना भी गलत है कि वरितकाव्यों का नायक पार्मिक व्यक्ति होता है जबकि लौकिक कथाकाव्योंका लौकिक पुरुष । उदाहरण के लिए धनपालका 'भविसयत्तकहा' को 'भविसयत चरिउ' भी कहा जा सकता है। उसका नायक भत्रिसयत्त 'सामान्य लौकिक' व्यक्ति नहीं है, जैसा कि कुछ लोग समझते हैं, लौकिक और अलोकिक व्यक्तियोंका चरित चित्रण करना अपभ्रंश चरित-कवियोंका उद्देश्य भी नही है । दूसरा उदाहरण है "सिरिवालचरिउ'का । कहीं-कहीं उसका नाम 'सिरिवालकहा' मी मिलता है। अपभ्रंशकाव्य, वस्तुतः विशिष्ट प्रबन्धकाव्य हैं, जिन्हें मासानीसे चरितकाव्य या कथाकाव्य कहा जा सकता है, केवल 'चरिउ' या 'कया' नाम के आधार पर उनमें भेद करना गलत है 1 स्वयम्भू और पुष्पयन्त दोनों अपभ्रंशसे सिद्ध कवि है और उन्होंने अपनी कथाको अलंकृत कथा कहा है । यह अलंकृत कथा वही है जो उनके चरितकाव्यों में प्रयुक्त है, रामायणको चेष्टा या प्रयत्न ही रामायण है, आगे चलकर यही अमन सा चेष्टा पौराणिक व्यक्तियों के साथ जुड़कर 'चरिइन जाती है। यह जरूरी है कि उक्त चेष्टा लौकिक ही हो, वह धार्मिक भी