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'पउमचरित' और 'रामचरितमानस'
महीं किया जा रहा है । विशिष्ट पात्रों के चरित्रको चर्चा भी नहीं की जा रही है क्योंकि वह तुलनात्मक अध्ययनमें सहायक नहीं है । दार्शनिक विचार
स्वयम्भू और तुलसी दोनों स्पष्टतापूर्वक और आग्रहके साथ अपने दार्शनिक विचार प्रकट करते हैं. जैनदर्शनके अनुसार सष्टिको व्याख्या करत हए वह कहते हैं कि संसार जड़ और चेतनका अनादि-निघन मिश्रण है। मिश्रणकी इस रासायनिक प्रक्रियाका विश्लेषण नितान्त कठिन है । तात्त्विक दृष्टि से चेतन आनन्दस्वरूप है, परन्तु जहकमने उसपर आवरण डाल रखा है इसलिए जीव दुग्णी है, आरमाएं अनेक है, प्रत्येक आत्मा स्वयं के लिए उत्तरदायी है। इस प्रकार स्वयम्भ द्रुतवादी और बहुआत्मवादी हैं । राग चेतनासे मुक्ति पानेके लिए यह विवेक विकसित करना जरूरी है कि जड़से चेतन अलग है, इस विधेकको गीतराग-विज्ञान कहते है। चित्तकी शुद्धि के लिए राग घेतमासे विरति होना जरूरी है। परन्तु इसके साथ और इसीकी सिद्धिके लिए स्वयम्भने तीर्थंकरोंकी विभिन्न स्तुतियां और प्रार्थनाएं लिखी है, श्रद्धाके अतिरेकमें वह तीर्थकरों को भगवान् त्रिलोक पितामह, त्रिलोक शोभालक्ष्मीका आलिंगन करनेवाला, याहसिक कि मां-बाप मान लेते हैं। तुलसीका दार्शनिक.मत सूर्य की तरह स्पष्ट है, क्योंकि उनकी काम्य चेतनाको मूल प्रेरणा ही भक्ति चेतना है । भगवत्प्राप्ति के बजाय भक्ति ही तुलसीका साध्य है।
"सगुणोपासक मोक्ष न लेही
तिन्ह कहे रामभक्ति निज देहीं ।" भक्सिको अनुभूतिकी निरन्तरता भी उसका एक गुण है :
"रामचरित जे सुनत्र अपाही
__ रस विसेस लिन जाना नाही" स्वयम्भूके वीतराग विज्ञानके लिए विरक्ति आवश्यक है और जिनभात, विरक्ति में सहायक है । तुलसीके लिए भक्ति मुख्य है, विरक्ति उसमें सहायक है। अर्थात् एकके लिए भक्ति विरक्तिका एक साधन है जबकि