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'पउमचरिउ' और 'रामचरितमानस'
और दूसरे को उसके बाद इस प्रकार दो काण्डोंको संख्या कम हो गयी लेकिन राम के प्रवृत्तिमूलक और उद्यमशील चरित्रको दोनों प्रधानता देते हैं। रामायणका अर्थ हैं, रामका अयन अर्थात् चेष्टा या व्यापार । त्रिभुवन स्वयम्भू भी अपने पिताकी तरह रामकथाको पवित्र मानता है । तुलसीदास तो आदि अन्त तक उसे 'कलिमल समनी' कहते रहे हैं । त्रिभुवन स्वयम्भूका कहना है कि जो इसे पढ़ता और सुनता है उसको आयु और पुण्य में वृद्धि होती है । त्रिभुवन स्वयम्भू लिखता है - "इस रामकथारूपो कन्या के सात सर्गबाले सात अंग है, वह चाहता है कि तीन रनों को धारण करनेवाली उसके बाश्रयदाता 'विन्दह' का मनरूपी पुत्र इस कन्याका वरण करे ।" हो सकता है बिन्दइका चंचल मन दूसरी कथा - कन्याओं को देखकर लुभा रहा हो और कविने उसका वित्त आकर्षित करने के लिए नयी कथा- कश्याकी रचना की हो। अपनी कमा-कन्या के सात अंग बताकर त्रिभुवनने यह तो संकेत कर ही दिया कि उन्हें उसके सात फाण्डों को जानकारी थी ।
वनमार्ग
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'मानस' में रामको वनयात्राका मार्ग आदिरामायण के अनुसार है। श्रृंगबेरपुर से प्रयाग, यमुना पार कर चित्रकूट । बहाँसे दण्डकारण्य । ऋष्यमूक पर्वत और पम्पा सरोवर माल्यवान् पर्वतपर सीता के वियोग में वर्षाऋतु काटना। रामकी सेनाका सुचेल पर्वतपर जमाव, समुद्रपर सेतु बांधकर लंका में प्रवेश | इसके विपरीत स्वयम्भूके रामको वनयात्राका मार्ग हैअयोध्या से चलकर गम्भीर नदी पार करना । वहाँ दक्षिणकी ओर राम प्रस्थान करते हैं, बीच में बाकर भरत रामसे मिलते हैं, कवि उस स्थान का नाम नहीं बताता । वह एक सरोवरका लतागृह था । यहाँ तापस वन, धानुष्क वन और भील बस्ती होते हुए वे चित्रकूट पहुँचते हैं, फिर दशपुर नगर में प्रवेश करते हैं। नलकूवर नगरसे विन्ध्यगिरिकी ओर मुड़ते हैं, नर्मदा और वासी पार कर कई नगरोंमें से होकर दण्डक वनसे कच
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