Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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( २८ ) साथ एकेन्द्रियादिजातिचतुष्क और स्थावर इन पाँच को मिलाकर इकतीस प्रकृतियों को समकव्यवच्छिद्यमानबन्धोदया कहा है।
४५-पंचसंग्रह के टीकाकार आचार्य मलयगिरि सूरि ने मनुष्यानुपूर्वी का उदयविच्छेद अयोगि के चरम समय में होना कहा है। यह विचारणीय है। क्योंकि आनुपूर्वी का उदय पहले, दूसरे और चौथे गुणस्थानों में होता है।
४६-श्वेताम्बर कर्म साहित्य में मूल बधहेतुओं के उत्तरभेदों के लिए इन्द्रिय अविरति के पाँच भेद मानकर भंग प्ररूपणा की है और दिगम्बर साहित्य में इन्द्रिय अविरति के छह भेद माने हैं तथा तदनुसार भंग बतलाये हैं।
४७-पंचसंग्रह के टीकाकार आचार्य मलयगिरि सूरि एकेन्द्रियादि सभी असंज्ञी जीवों में अनाभोगिक मिथ्यात्व मानते हैं, लेकिन स्वयं ग्रन्थकार ने अनभिग्रहीत मिथ्यात्व का संकेत किया है।।
४८-आचार्य चन्द्रर्षि महत्तर ने प्रत्येक जीव-भेदों में तीन वेद का उदय मानकर बंधहेतुओं के भंग बताये हैं। परन्तु परमार्थतः तो असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक जीवों में मात्र नपुसकवेद का उदय है। ___४६- कर्म साहित्य का सामान्य मन्तव्य है कि क्षीणमोह गुणस्थान के द्विचरम समय पर्यन्त निद्राद्विक का उदय एवं उदीरणा होती है। परन्तु आचार्य मलयगिरि सूरि उपशान्तमोह गुणस्थान तक निद्राद्विक की उदीरणा मानते हैं।
५०-किन्हीं आचार्यों का मत है कि ग्यारहवें गुणस्थान से जो भवक्षय से गिरता है, वह अनुत्तर विमान में उत्पन्न होता है और भव के प्रथम समय में क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त करता है, पूर्वभव की उपशम श्रेणि का सम्यवत्व यहाँ नहीं लाता है तथा एक मत ऐसा भी है कि उपशम श्रेणि का उपशम सम्यक्त्व लेकर अनुत्तर विमान में उत्पन्न होता है।
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