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विराट् शक्तियों के साथ तादात्म्य हो सकता है । अतः अहंकार शून्यता के विस्तार के लिए प्रत्येक पद के साथ 'नम:' शब्द का प्रयोग किया गया है, 'नम:'-- अर्थात् नमस्कार समर्पण और शून्यता का ही विधायक है । 'नमः' कहते ही 'न मैं' की भावना का उद्भव हो जाता है ।
जब मन्त्र-साधक अहकार-शून्य होकर अरिहन्त से लेकर साधुत्व तक बार-बार मानसिक यात्रा करता है, तब उसका मन स्थिर होने लगता है, उसे निर्विचारता की स्थिति जिसे समाधि भी कहते है-प्राप्त होने लगती है। जैसे बारबार के घर्षण से हाथ में गाठे पड जाती हैं और गांठ वाला स्थान संज्ञा-शून्य हो जाता है, इसी प्रकार बार-बार की यात्रा से मानसिक आवरण घिस कर ट्टने लगते हैं, मन स्थिर एवं बाह्य संसार के आकर्षणो और स्मृतियों से शून्य होकर अरिहन्तत्व तक पहुंचने का एक वतुल प्रस्तुत कर लेता है । इस वर्तुल मे स्थित हो जाने पर वह स्थिति प्रा जाती है जब जप किया नही जाता अपितु होने लगता है, स्वतः होनेवाले इसी जप को 'अजपाजाप' कहा जाता है । इसी वर्तुल को बनाने के लिये ही अखण्ड जप की प्रक्रिया का प्रारम्भ किया गया है।
अखण्ड जप में सामूहिक साधना होती है, वैयक्तिक साधना नहीं, क्योकि नवकार मन्त्र अरिहन्त से लेकर साधु तक बहुवचन का प्रयोग करते हुए अनेक भव्य आत्मानों
बारह ]