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नत्यादि को देखने का भी कठोर रूप से निषेध किया है। ४. स्त्री के संसर्ग से योगी भ्रष्ट होकर नरक में जाता है। ५. ब्रह्मचर्य की पोच भावना में चार भावनामों का सो तत्त्वार्थ सूत्र के सदृश्य ही वर्णन किया गया है । ६. परन्तु पांचवीं भावना में शरीर संस्कार के स्थान पर प्राचार्य महोदय ने स्त्री के रहने, सोने, उठने, 'बैठने प्रायि के स्थान का भी सदा के लिये त्याग करना बताया है।
परिग्रह त्याग महावत-इस महादत का आचार्य श्री ने पाकिचन्य महादत के नाम से वर्णन किया । १. चेतन, अधेतन, बाह्य, अभ्यन्तर परिग्रह में मूछ के त्याग की प्रेरणा देते हुए आचार्य ने पाकिञ्चन व्रत का बहुत अच्छा वर्णन किया है। २. ज्ञान, संयम, शौच के उपकरण के असावा आचार्य ने सम्पूर्ण परिग्रह के त्याग की प्रेरणा दी है। ३. वसतिकादि में भी स्वामित्व रखने को परिग्रह बताकर मृनिधर्म के अयोग्य पदार्थ को एक बाल के अग्रभाग का करोड़यां भाग भी नहीं ग्रहण करने की प्रेरणा दी है। ४. तत्त्वार्थ सूत्र के सादृश्य ही परिग्रह महाअत को शुद्ध रखने के लिए ५ भावनाओं को प्रेरणा दी है । ५. महादत को परिभाषा करते हुए आचार्य कहते हैं कि महापुरुष जिसको धारण करते हैं एवं महान् पद मोक्ष को प्रदान करने वाला महाबल के नाम को सार्थक सिद्ध किया है। इस प्रकार की प्ररूपणा करते हुए प्रथम अधिकार को पूर्ण किया।
द्वितीय अधिकार
ईर्या समिति-३३६ श्लोक में आचार्य श्री ने पांच समितियों का विस्तृत वर्णन किया है। प्राचार्य बताते हैं कि-१. बिना प्रयोजन किसी भी गांव या घर में मुनिराज को नहीं जाना चाहिए । २. कितना व कैसा भी अं कार्य आ जान पर भी सूर्यास्त व सूर्योदय के पूर्व मुनिराज को गमन नहीं करना चाहिये । ३. सेंकड़ों कार्य होने पर भी मुनिराज चातुर्मास में न तो स्वयं गमन करे न यती को हो बाहर भेजें। ४. प्रयोजन के निमित्त से भी गमनागमन कार्यों में पाप देने वाली सम्मति नहीं देना चाहिये । यहां आ, वहां जा, यहां बैठ, इस कार्य को कर, भोजन कर इस प्रकार कहना भी पाप का कारण है। ५. दयावान मुनिराज को हिलते हुए काष्ठ, पाषाण पर पंर देकर गमन नहीं करना चाहिये । ६. मार्ग में खड़े रहकर भी बात करने का निषेध किया तो चलते हुए वार्तालाप का निषेध तो नियम से ही समझ लेना चाहिये ।
भाषा समिति--भाषा समिति के वर्णन में प्राचार्य महोदय ने १. आत्म प्रशसा, विकया. इंसी, निन्दा, चुगली आदि के वचन बोलने का निषेध करते हुए त्याग पूर्वक धर्म मार्ग में प्रवृति करवाने वाले सारभूत, परिमित वचन बोलने को ही भाषा समिति कहा है। २. सत्य के दस भेदों का स्वरूप बहुत हो मुन्दर रूप से बतलाया है। पुनः ६ प्रकार की प्रमुभयादि भाषाओं का कथन किया
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